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अनेकान्त
गनीमत थी, भटकते-भटकते कभी तो सच्चे मार्ग दर्शकका पता पाते । परन्तु यहाँ तो कोई नेता है ही नहीं, नेताओंके वेषमें भेड़िये, बावले, अबोध और अकर्मण्य हमारे चारों ओर घूम रहे हैं। और अपनी जुदा-जुदा डफली बजा रहे हैं, उस डफलीकी तानपर मस्त होकर कौन कुए में गिरेगा और कौन खाईमें इसकी इन्हें न चिन्ता है और न सोचनेका समय है ।
जैन समाज के तीनों सम्प्रदायोंमें अखिल भारतीय संस्था तीन भी होतीं तो भी ठीक थीं। परन्तु २ दर्जनसे तो अब भी कम नहीं और कई संस्थाओं के बीजारोपण होरहे हैं । और तारीफ यह है कि इनके अधिकारियों को अपने निजी कार्योंसे लहमेभरकी फुरसत नहीं । कार्यालय मामूली क्लर्क चलाते हैं और इनकी ओर से बहुत साधारण टकेपन्थी एक-एक दो-दो उपदेशक गाँव-गाँवमें घूमते हैं । वे कहाँ जाते हैं और क्या-क्या अनाप-शनाप कह आते और उसका क्या फल होता है, यह जानने तकका अवकाश किसीके पास नहीं है। इन अखिल भारतीय सभाओं के अधिवेशन होते हैं । वह अधिवेशन क्यों होरहा है और क्या उपयोगी योजनाएँ समाजके लिये रखनी हैं, इसपर कार्यकारिणी कभी विचार तक नहीं करती । विचार करनेको समय ही नहीं, बमुश्किल बड़े दिन या ईस्टरकी छुट्टियोंमें केवल अधिवेशनमें सम्मिलित होनेको समय निकल पाता है । परिणाम यह होता है कि विषय निर्वाचन में बैठे हुए महानुभाव वहींकी वहीं परस्पर विरोधी उलूल-जुलूल प्रस्ताव गढ़ते रहते हैं, घण्टों बहस होती रहती है और अन्त में कुछका कुछ पास होजाता है। न कोई यह सोचता है कि इस प्रस्तावका क्या प्रतिफल होगा, न कोई उसे श्रमली रूप देने की योजनापर ही विचार करता है ।
जिनके पास संस्थाएँ हैं, वे कुछ कर नहीं पारहे हैं, जिनके पास नहीं हैं वे किसी न किसी बहाने अपनी नई संस्था खोलने जारहे हैं। पानकी दुकान खोलनेमें शायद असुविधा हो, परन्तु संस्था खोलनेमें कोई परेशानी नहीं । समाजसे चन्दा मिल ही जाता है, बस अपने दो-चार आदमियोंको आजीविका
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भी मिल गई और स्वयं नेता भी बन गये ।
नेता बनना बुरा नहीं यदि त्याग और तपस्या के साथ-साथ कुछ कर गुज़रनेकी चाह हो । परन्तु केवल आजीविका के लिये अपनी महत्वाकांक्षाएँ पूर्ण करनेके लिये और अपनेको अर्थ चिन्तासे निराकुल करनेके लिये नेता बननेका प्रयत्न दुखिया समाजको पीठ में छुरा भोंकना है। ४ अल्पसंख्यकोंके सुधार
स्वर्गीय रायबहादुर साहु जुगमन्दरदासजी नजीबासन् १९२८ की दशलाक्षणी के दिन थे । मैं और बादमें धार्मिक और सामाजिक चर्चाएँ कर रहे थे । प्रसङ्ग छिड़ गया । रायबहादुर साहब एक ही सुलझे सुधारों को लेकर जैनसमाजकी तू-तू, मैं-मैं का भी बोले :- " गोयलीयजी, समाजकी शक्ति इन व्यर्थ के हुए आदमी थे, वे सहसा गम्भीर हो उठे और कार्यों में नष्ट होती देखकर मुझे बड़ा दुख होता है । व्यर्थकी उथल-पथल मची हुई है ।" इन छोटे-छोटे सुधारोंको लेकर हमारी समाज में
सुधारोंके विपक्षमें रायजनी करते सुनकर मैं कुछ कहना ही चाहता था कि वे बोले – “घबराओ पक्षपाती हूं, परन्तु मैं समाज में उन्हीं आन्दोलनों का नहीं, मैं सुधारोंका विरोधी नहीं आपसे अधिक समर्थक हूं जो जैनसमाज से सम्बन्ध रखते हैं और जैनेतर बहुसंख्यकों पर आश्रित नहीं हैं। मैं कब कहता हूँ कि शास्त्रोद्धारका आन्दोलन बन्द कर दिया जाय, यह आन्दोलन तो इतने वेग से चलाया जाय कि एक भी शास्त्र अमुद्रित न रहने पाए, दस्सापूजनाधिकार अन्तर्जातीयविवाहका आन्दोलन वर-विक्रय, वेश्यानृत्य, नुक्ता प्रथाको अविलम्ब बन्द् आप खूब कीजिये । बाल और वृद्ध विवाह रोकिये, कराइये । यह सब आन्दोलन केवल अपनी समाजसे सम्बन्ध रखते हैं अतः इन्हें सहर्ष चलाइये और सफलता प्राप्त कीजिये ।”
"मेरा आशय तो यह है कि वे आन्दोलन जो हमारे इतर भिन्न धर्मियों, पड़ोसियों और सजं तियोंसे सम्बन्ध रखते हैं उन्हें न छेड़ा जाय । क्योंकि यदि
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