Book Title: Anekant 1948 03
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Jugalkishor Mukhtar

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Page 24
________________ ११० अहिंसाकी जितनी सूक्ष्म व्याख्या एव आचरणकी तत्परता और कठोरता जैनधर्ममें पाई जाती है वैसी विश्व के किसी भी धर्मग्रन्थमें पाई नहीं जाती। जैनधर्मकी हिंसा की मर्यादा मानवोंतक ही सीमित नहीं पर पशु-पक्षीके साथ पृथ्वी, वायु, अग्नि, जल एवं वनस्पति जगतकी रक्षा से भी आगे बढ़ती है। किसी भी प्रारणका विनाश तो हिंसा है ही, यहाँ तो उनको मानसिक, वाचिक, कायिक एवं कृतकारित अनुमोदित रूपसे भी तनिक-सा कष्ट पहुँचाना भी हिंसाके अन्तर्गत माना गया है। इतना ही नहीं, किसी भी प्राणी के विनाश एवं कष्ट न देनेपर भी यदि हमारे अन्तर्जगत-भावनामें भी किसीके प्रति कालुष्य है और प्रमादवश स्वगुणोंपर कर्म - आवरण आता है तो उसे भी आत्मगुणका विनाश मानकर हिंसाकी सज्ञा दी गई है। श्रीमद् देवचन्दजीने श्रध्यात्मगीतामें कहा है कि अनेकान्त श्रात्मगुणनो हणतो, हिंसक भावे थाय । श्रात्मधर्मनो रक्षक, भाव हिंस कहाय ॥ श्रात्मगुणरक्षणा, तेह धर्म । स्वगुणविध्वंसना, तेह धर्म ॥ अहिंसाकी इतनी गम्भीर एवं मर्मस्पर्शी व्याख्या विश्व के किसी भी अन्य धर्ममें नहीं पाई जायगी । जैनधर्मके महान् उद्धारक भगवान महावीरने अहिंसा पालन के लिये मुनिधर्ममें कठिन से कठिन नियम बनाये, जिससे अधिक से अधिक अहिंसा की प्रतिष्ठा जीवन में हो सके । भगवान महावीरके समय यज्ञादिमें महान् नहिंसा व पशुहिंसा हो रही थी । धर्मके नाम पर होने वाली इस जीवहत्याको धर्मके ठेकेदार स्वर्गप्राप्तिका साधन बतलाते थे । इस घोर पाखण्डका भगवान महावीर एवं बुद्धने सख्त विरोध किया । जिसके फलस्वरूप हज़ारों ब्राह्मणोंने उनका शिष्यत्व ग्रहण किया और यज्ञ होने प्रायः बन्दसे हो गये । यज्ञके बाद पशु-हिंसाकी प्रवृत्ति देवीपूजा में पाई जाती हैं, जो हजारों वर्षोंसे अनर्थ मचा रही है । यज्ञ बन्द हो गये, पर इसने तो अभोतक पिंड नहीं छोड़ा । Jain Education International [ वर्ष ९ मेरी राय में इसके बने रहनेका कारण यह है कि यज्ञमें पशु-हिंसा करना बड़ा खर्चीला अनुष्ठान था उसे तो राजा-महाराजा व सम्भ्रान्त लोग ही करवाते थे । अतः उसकी व्यापकता इतनी नहीं हुई, इसी से थोड़े व्यक्तियोंके हृदय परिवर्तन द्वारा वह बन्द हो गया; पर देवीपूजामें एक-आध बकरे आदिकी बलि साधारण बात थी और इसलिये वह घर-घर में प्रचारित हो गई । ऐहिक स्वार्थ ही इसमें मुख्य था । अतः इसको बन्द करनेके लिये सारी जनताका हृदय परिवर्तन होना आवश्यक था । धर्म प्रचार सभ्य समाजमें ही अधिक प्रबल हो सका, अतः उन्हीं के घरोंसे तो बलि बन्द हुई पर ग्रामीण जनता तथा साधारण बुद्धि वाले लोगों में यह चलती ही रही । इसको बन्द करानेके लिये बहुत बड़े आन्दोलनकी... आवश्यकता थी । जैनाचार्योंने समय-समयपर इसे हटानेके लिये विविध प्रयत्न किये, उन्हीं में से एक प्रयत्न यशोधरकी कथाका निर्माण भी कहा जा सकता है । यशोधरचरित्रमें प्रधान घटना यही है कि यशोधरने अनिच्छासे माता के दबाव के कारण देवी के आगे साक्षात् मुर्गेका नहीं पर टेके मुर्गेका वध किया, उसके फलस्वरूप उसे व उसकी माताको अनेक बार मयूर, कुत्ता, सेही, सर्प, मच्छ, मगर, बकरा, भैंसा आदि पशु-योनियोंमें उत्पन्न होना पड़ा एवं इन सब भवोंमें उनको निर्दयता-पूर्वक मारा गया । इस कथा के प्रचारका उद्देश्य यह था कि जब अनिच्छा से आटे के मुर्गेको देवीके बलि देनेपर इतने दुःख उठाने पड़े तो जान-बूझकर हर्षसे जो साक्षात् होगा ? अतः बलि प्रथा दुर्गतिदाता होनेसे सर्वथा जीव हत्या करते हैं उनको नरकमें भी कहाँ ठिकाना परिहार्य है । पशु बलिको दुर्गतिदायी सिद्ध करने में सहायक इस कथाको जैन विद्वानों द्वारा अधिक अपनाना स्वाभाविक एवं उचित ही था । वास्तवमें इस कथासे हजारों आत्माओं को पशु-बलिसे छुटकारा दिलाने व दूर रखने में सहायता मिली होगी। For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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