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किरण ३]
रत्नकरण्डके कर्तृत्व-विषयमें मेरा विचार और निर्णय
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और त्रिमूढतारहित श्रद्धानको सम्यग्दर्शन बतलाया रूपसे उल्लेख करनेकी जरूरत होती, बल्कि उसीमें गया है उनका क्रमशः स्वरूप निर्देश करते हुए, इस अन्तर्भूत है । टीकाकारने भी शाब्दके 'लौकिक' और पद्यसे पहले 'श्राप्त' का और इसके अनन्तर 'तपोभृत' 'शास्त्रज' ऐसे दो भेदोंकी कल्पना करके, यह सूचित का स्वरूप दिया है; यह पद्य यहाँ दोनोंके मध्यमें किया है कि इन दोनोंका ही लक्षण इस आठवें पद्यअपने स्थानपर स्थित है, और अपने विषयका एक में आगया है' । इससे ९वें पद्यमें शाब्दके 'शस्त्राज' ही पद्य है । प्रत्युत इसके, न्यायावतारमें, जहाँ भी यह भेदका उल्लेख नहीं, यह और भी स्पष्ट होजाता है। नम्बर ९ पर स्थित है, इस पद्यकी स्थिति मौलिकता- तीसरे, ग्रन्थभरमें, इससे पहले, 'शास्त्र' या 'आगमकी दृष्टि से बहुत ही सन्दिग्ध जान पड़ती है-यह उसका , शब्दका कहीं प्रयोग नहीं हुआ जिसके स्वरूपका कोई आवश्यक अङ्ग मालूम नहीं होता और न इसको प्रतिपादक ही यह ९ वाँ पद्य समझ लिया जाता, निकाल देनेसे वहाँ ग्रन्थके सिलसिलेमें अथवा उसके और न 'शास्त्रज' नामके भेदका ही मूलग्रन्थमें कोई प्रतिपाद्य विषयमें ही कोई बाधा आती है। न्याया- निर्देश है जिसके एक अवयव (शास्त्र) का लक्षणवतारमें परोक्ष प्रमाणके 'अनुमान' और 'शब्द' ऐसे प्रतिपादक यह पद्य हो सकता । चौथे, यदि यह कहा दो भेदोंका कथन करते हुए, स्वार्थानुमानका प्रतिपादन जाय कि वें पद्यमें 'शाब्द' प्रमाणको जिस वाक्यसे
और समर्थन करनेके बाद इस पद्यसे ठीक पहले उत्पन्न हुआ बतलाया गया है उसीका 'शास्त्र' नामसे 'शाब्द' प्रमाणके लक्षणका यह पद्य दिया हुआ है- अगले पद्यमें स्वरूप दिया गया है तो यह बात भी
'दृष्टेष्टाव्याहताद्वाक्यात् परमार्थाभिधायिनः । नहीं बनती; क्योंकि ८ वें पद्यमें ही 'दृष्टेष्टाव्याहती' तत्त्वग्राहितयोत्पन्नं मानं शाब्दं प्रकीर्तितम् ।।।। आदि विशेषणोंके द्वारा वाक्यका स्वरूप दे दिया गया
इस पद्यकी उपस्थितिमें इसके बादका उपर्यक्त है और वह स्वरूप अगले पद्यमें दिये हुए शास्त्रके पद्य, जिसमें शास्त्र (आगम) का लक्षण दिर
स्वरूपसे प्रायः मिलता जुलता है-उसके 'दृष्टेष्टा
व्याहत' का 'अदृष्टेष्टाविरोधक' के साथ साम्य है कई कारणोंसे व्यर्थ पड़ता है । प्रथम तो उसमें शास्त्रका लक्षण आगम-प्रमाणरूपसे नहीं दिया-यह नहीं
और उसमें 'अनुल्लंघ्य' तथा 'आप्तोपज्ञ' विशेषणोंबतलाया कि ऐसे शास्त्रसे उत्पन्न हुआ ज्ञान भागम
का भी समावेश हो सकता है; 'परमार्थाभिधायि'
विशेषण 'कापथघटन' और 'सार्व' विशेषणोंके भावप्रमाण अथवा शाब्दप्रमाण कहलाता है; बल्कि
का द्योतक है; और शाब्दप्रमाणको 'तत्त्वग्रा.हसामान्यतया आगमपदार्थके रूपमें निर्दिष्ट हुआ है, जिसे 'रत्नकरण्डमें सम्यग्दर्शनका विषय बतलाया ।
तयोत्पन्न प्रतिपादन करनेसे यह स्पष्ट ध्वनित है कि गया है। दूसरे, शाब्दप्रमाणसे शास्त्रप्रमाण कोई भिन्न
वह वाक्य 'तत्त्वोपदेशकृत्' माना गया है-इस तरह वस्तु भी नहीं है, जिसकी शाब्दप्रमाणके बाद पृथक्
दोनों पद्योंमें बहुत कुछ साम्य पाया जाता है । ऐसी
हालतमें समर्थनमें उद्धरणके सिवाय ग्रन्थ सन्दर्भके १ सिद्धर्षिकी टीकामें इस पद्यसे पहले यह प्रस्तावना-वाक्य साथ उसकी दूसरी कोई गति नहीं; उसका विषय दिया हुअा है-“तदेवं स्वार्थानुमानलक्षणं प्रतिपाद्य पुनरुक्त ठहरता है। पाँचवें, ग्रन्थकारने स्वयं अगले तद्वतां भ्रान्तताविप्रतिपत्तिं च निराकृत्य अधुना प्रतिपादित- पद्यमें वाक्यको उपचारसे 'परार्थानुमान' बतलाया परार्थानुमानलक्षण एवाल्पवक्तव्यत्वात् तावच्छान्द- है। यथालक्षणमाह"।
स्व-निश्चयवदन्येषां निश्चयोत्पादनं बुधैः । २ स्व-परावभासी निर्बाध ज्ञानको हीन्यायावतारके प्रथम पद्यमें पराथै मानमाख्यातं वाक्यं तदुपचारतः ॥१०॥ प्रमाणका लक्षण बतलाया है, इसलिये प्रमाणके प्रत्येक १"शाब्दं च द्विधा भवति-लौकिक शास्त्रजं चेति । भेदमें उसकी व्याप्ति होनी चाहिये ।
तत्रेदं द्वयोरपि साधारणं लक्षणं प्रतिपादितम्"।
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