Book Title: Anekant 1948 03
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Jugalkishor Mukhtar

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Page 7
________________ किरण ३] गाँधीजीका पुण्य-स्तम्भ जो स्वरूप है वह एक खम्भा है जिसका सार्वजनिक धर्म-यात्रीके पड़ावके सूचक और भी स्तम्भ बनवाये पूजन अनेक प्रकारसे राष्ट्रकी जनता करती है। इस गये। अशोकका नाम न केवल भारतवर्ष बल्कि खम्भेका नाम वहाँपर इन्द्रयष्टि कहा गया है, और एशियाके इतिहासमें सबसे महत्वपूर्ण है । उसने सबसे इसीके साथकी मालाका नाम वैजयन्ती बताया गया पहले एशियाकी एकताका स्वप्न देखा और अपनी है, जो राष्ट्रीय-विजय-सूचक है । कहा जाता है कि निर्मल दृष्टि और दृढ़ निश्चयसे प्रेम और अहिंसाके राजा वसुने तपश्चर्या की जिससे इन्द्रको डर लगा कि द्वारा मनुष्यका मनुष्यके साथ सम्बन्ध स्थापित करनेकहीं यह स्वर्ग तो नहीं चाहता। तब इन्द्रने उसके का जो नया प्रयोग उसने चलाया उसमें सम्मिलित तपसे प्रसन्न होकर कहा कि तुम पृथ्वीपर रहते हो होनेके लिये अपने पड़ोसी देशके राजाओंको भी और मैं स्वर्गमें, मैं तुम्हें पृथ्वीपर ही अपना प्रिय मित्र निमंत्रण दिया। देहरादून जिलेमें कालसी नामक बनाता हूं, तुम ऐसा देश बसाओ जहाँके निवासी स्थानकी चट्टानपर खुदे हुए लेखमें उसने सीरिया, धर्मशील और सदा संतुष्ट हों, जो हँसीमें भी झूठ न मिस्र और यूनानके उन राजाओंका नाम दिया है बोलें, जहाँ मनुष्य तो क्या पशुओंपर भी अत्याचार जिनके पास उसने अपने दूत भेजे थे ताकि वे उन्हें न हो, जहाँ सब अपने-अपने कर्तव्य या सधर्मको भी धर्म-विजयका संदेश सुनाएँ । अपने पुत्र महेन्द्र पूरा करें, जहाँ भूमि अच्छी हो और सब तरहका और अपनी पुत्री संघमित्राको सिंहलमें धर्म-प्रचारके धनधान्य पूर्ण हो । ऐसे सब प्रकारसे रमणीय और लिए भेजकर उसने इतिहास में एक अद्भुत उदाहरण ऐश्वर्ययुक्त देशमें तुम राजा बनो । इस प्रकारके सर्व- रखा । अशोकके मनकी यही प्रेरणात्मक शक्ति थी सुखी राष्ट्रकी सूचक यह इन्द्रयष्टि मैं तुमको देता हूँ। जो उसके अनेक देवोत्तर कार्योंके द्वारा प्रकट होती देशका जो मनानन्दी रूप है, उसकी प्रतीक यह है। बर्मा, नैपाल आदि भारतके पड़ोसी देश भी इन्द्रयष्टि है । यष्टिको ही प्राकृतमें लाठी और हिन्दीमें अशोककी धर्म-विजयसे लाभ उठानेमें समर्थ हुए । उसीको लाठ या लाट कहते हैं। इस प्रकारकी यष्टि सम्राटको जितनी स्वदेशकी चिन्ता थी सम्भवतः या स्तम्भके अनेक उदाहरण प्राचीन भारतीय सिक्कों दूसरे देशोंकी उससे कम न थी। स्वदेश और विश्वपर और प्राचीन भारतीयकलामें पाये जाते हैं, जिसमें का-यह विलक्षण समन्वय अशोककं जीवनमें जैसा एक ऊँचे खम्भेपर फहराते हुए दोहरे झण्डेकी आकृति था वैसा ही गांधीजीके जीवनमें भी प्रकट होता है। बनी हुई होती है। . अशोकके धर्मका मूलमन्त्र समवाय या पारस्परिक सम्राट अशोकके धर्मस्तम्भ मेलमिलापपर आश्रित था । 'समवाय एव साधु' इस भारतीय इतिहासमें स्तम्भ और स्मारकोंकी अपने एक वाक्यमें मानो सम्राटने भारत-राष्ट्रकी सर्वोत्तम देन मौर्य सम्राट महाराज अशोकसे हमें सदा-सदाकी विशेषता और जीवनकी आवश्यकताका प्राप्त होती है। अशोकने बुद्धके लगाये हुए छोटेसे निचोड़ बता दिया है। अशोकका साम्राज्य अफगापौधेको राष्ट्रकी शक्तिसे सींचकर संसारव्यापी बना निस्तानसे मैसूर तक फैला हुआ था। उसने सारे राष्ट्र दिया। उनका मन बुद्धके गुणोंका ध्यान करके व्यक्ति में चट्टानों और खम्भोंपर अभिलेख खुदवाये जिनमें गया। उन्होंने बुद्धके जन्मस्थानकी बार-बार सीधे-सादे शब्दोंमें सच्चाईके उन नियमोंको यात्रा की और नेपालकी तराईमें बुद्धके जन्मस्थान बताया गया है जिनसे व्यक्ति, समाज और देशका लुम्बिनी गाँव में एक स्तम्भ बनवाया जिसपर लिखा जीवन उदात्त बनाया जा सकता है । अपने विचारोंके है, “यहाँ भगवानका जन्म हुआ था। यह गाँव अनुसार राष्ट्रका निर्माण करते हुए उसने दीन, दरिद्र, राज-करसे मुक्त किया जाता है ।" पाटलीपुत्रसे दुखी, स्त्री-पुरुष, पशु-पक्षी सबके उद्धार और उन्नतिका लुम्बिनीकी यात्राका मार्ग तय करते हुए संभवतः ध्यान रखा है । इन लेखोंको लिखवाते समय अशोक Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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