Book Title: Anangdhara Author(s): Veersaagar Jain Publisher: Jain Jagriti Chitrakatha View full book textPage 7
________________ अनंगधारा इसजीवने आजतक चेतन-अचेतन को भिन्न नहीं पहिचाना है। इसीलिए यह चर्तुगूतिरूप संसार में परिभ्रमण कर रहा है। (यह जीव अपनीअजानता सेपश्पदार्थो में इष्ट अनिष्ट कीकल्पना कर रागद्वेष करता है । TAI इसप्रकार सभीजीव स्वयं की भूल के कारण कोई किसी को सुख या दुःस्व नहीं दे सकता वमार या जिला नहीं सकता। हो सकते हैं। सब जीव अपने तो गुरुदेव सच्चा सुख कैसे प्राप्त होगा? ।Page Navigation
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