Book Title: Anangdhara
Author(s): Veersaagar Jain
Publisher: Jain Jagriti Chitrakatha

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Page 13
________________ . अनंगधरा समें वैराग्यपूर्ण विचार करते हुए विद्यात हे मत्यजीव. तुम्हारी पुनर्वसुमुनिराज दुमसेन के पास जाता है। हमुनिवर में इससंसार कि तुम्हें इससंसार में) से अत्यन्त दरवी होचुका अत्यन्तदुलभासितहुशार है अत: मुझंकल्याणका सच्या मार्गबताइये। और आत्म कल्याण की अभिलाषाहई (हे भव्य! यह जीव देखो काम कषाय की कषायवश अपना अत्यन्त दारवरूपता, र हित अहित भूलकर किजिसके कारणबड़े। पागल की भाँति | बड़ज्ञानी-हयानी भी.. आचरण करता- अंधे हो जातेहैं। हआ अनंत दुःख भोगताहै। / उल्लू कोतो केवल दिन में नहीं दिखताव कामीजीव कौर को केवलावि में नहीं दिखाई देता परन्तु कामान्य प्राणी को तीन दिन । | महान्धहोता। में दिखता है, नहीं राषि

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