Book Title: Anangdhara
Author(s): Veersaagar Jain
Publisher: Jain Jagriti Chitrakatha

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Page 23
________________ अनंगधरा अनंगधराशरीर तजकर तीसरे स्वर्ग में देवांगना । इधर पुत्रीकाकरण अंतदेखकर सम्राट चक्रधरकोवैशम्यहो आताहै। अहो! यह संसार तो अत्यन्त दुःखभयहे धिक्कार है मुझे कि इस प्रकार वैराग्यपूर्ण विचार करते हुए राज्य मैं इससंसारकीर्वाद में वापस लौटते हैं और अपने बाईस हजार पुगे कर रहाहूँ। कोबुलातेहापों में अपने ) मुझेतीसंसार | (आत्मकल्याणके मिरमुनि दीक्षा कनाशकरने रहा है। का उपायकरना चाहिये। लेकिन पुत्रों के मन में भी वैराग्य हिलोरेलेरहाथा अतः वेकहते है-पिताश्री हम भी अब महाराज सासुजकर गद्गद होजाते है (धन्यहो पुत्रों ।। तुम धन्य हो। इस संसार मैनहीं रहना दीक्षा अंगीकार कर चाले अत: हमेश्री मुनि -/M और साशवातावरण वैशम्यमयहो, जाता है 21

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