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हे भव्य! जैसे अग्नि में घी डालने सेअग्नि बुझती नहीं, अपितु
जैन जाग्रति चित्रकथा
श्मशान में जिस प्रकार व्याघ्रमुर्देको खाकर सखी होता है, वैयेही यह अज्ञानीजीव स्त्री के दन्धित शरीरके आलिंगन सेहर्ष
बढ़ती है।
मनाता है।
उसी प्रकार भोगों कासेवन करने से भोगी की इच्छा मिटती नहीं, अपितु
बढ़ती है।
अंत: हे जीव! अत: अपनी आत्मशक्ति भोगों कात्यागकर को शरीर, इन्द्रियों आत्मानभूतिपूर्वक
विचारों और विकल्प संयमधारण करने सेहटाना चाहिये का उपायकरनाचाहिय
अपने उपयोग को अखण्ड आत्मा की ओर- अभेदपने स्थापितकरना हीस्वानुभव है और यही सुखका
सच्चा उपाय है।
पुनर्वसुवैराग्य पूर्वक कहते है।
हे प्रभु! मुझ शीघ्र ही जैनेश्व दीक्षा प्रदान कीजिये।