Book Title: Anand Pravachan Part 05
Author(s): Anand Rushi, Kamla Jain
Publisher: Ratna Jain Pustakalaya

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Page 298
________________ २७८ आनन्द प्रवचन | पांचवां भाग यह सुनकर राजा स्वयं ही उस चोर के पास गए जो संन्यासी का बाना पहने गंगा के किनारे ध्यान का ढोंग किये हुए था। राजा ने उस संन्यासी से आग्रह करते हुए कहा-"महाराज ! मेरी कन्या की कुंडली में साधु से विवाह करना लिखा है अतः आप मेरी कन्या के साथ विवाह कर लीजिये । मैं अपनी पुत्री से विवाह करने वाले को आधा राज्य भी प्रदान करूंगा।" चोर ने राजा की बात सुनी तो मन ही मन बड़ा प्रसन्न हुआ, किन्तु अचानक ही उसके हृदय में यह विचार आया कि-'देखो, साधु का वेश पहनते ही इसका कितना अच्छा फल मिला है कि स्वयं राजा अपनी राजकुमारी और राज्य देने के लिए आया है । पर अगर मैं सच्चा साधु बन जाऊँ और मन, वचन एवं शरीर से साधुत्व का पालन करूँ तो उसका परिणाम तो न जाने कितना अच्छा होगा और वह इस राज्य से भी अनेक गुना उत्तम होगा। ऐसा विचार कर उस चोर ने राजा को अपने झूठे वेश पहनने का कारण बता दिया और उसी दिन से सच्चा संन्यासी बनकर तपस्या एवं साधना में जुट गया। ऐसे उदाहरणों से ज्ञात होता है कि जब साधु का वेश ही व्यक्ति के मन को बदल देता है तो फिर साधुत्व को हृदय से अंगीकार करने वाले का हृदय तो विकारों से कितना रहित होना चाहिए। इसलिए शास्त्र की गाथाओं में कहा गया कि साधु को अहंकार, राग द्वेष, आसक्ति तथा परिग्रह आदि सबको त्याग करके निस्संग यानी संग रहित अकेले ही देश-विदेश में भ्रमण करना चाहिए। अब प्रश्न होता है कि साधु को चातुर्मास अथवा किन्हीं विशेष कारणों के अलावा सदा यत्र तत्र विचरण क्यों करना चाहिये ? विचरण किसलिए? भगवान महावीर का आदेश है कि साधु को ग्रामानुग्राम विचरण करते रहना चाहिए। इस विधान के अनुसार आप देखते ही हैं कि साधु चातुर्मास के अलावा इधर से उधर विहार करते हुए अनेक गांवों में जाते हैं। किन्तु इतना अवश्य है कि प्रायः साधु-साध्वी अपने प्रान्तों में, अपने भाषा-भाषी स्थानों में या अपने मानने वालों के गाँव और नगरों में अधिक भ्रमण करते हैं। किन्तु अधिक अच्छा यही है कि साधु इन बातों का सर्वथा ध्यान न रखते हुए किसी भी प्रदेश में यथाशक्य विचरने का प्रयत्न करे और विशेष करके उन प्रदेशों में भी जाए जहां धर्म से अनभिज्ञ लोग कहलाते हैं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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