Book Title: Anand Pravachan Part 05
Author(s): Anand Rushi, Kamla Jain
Publisher: Ratna Jain Pustakalaya

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Page 308
________________ २८८ आनन्द प्रवचन | पांचवां भाग इसी विषय में दूसरी गाथा इस प्रकार है तत्थ से अस्थमाणस्स. उवसग्गाभिधारए । संकाभीओ न गच्छेज्जा, उद्वित्ता अन्नमासणं ॥ --उत्तराध्ययन सूत्र, अ. २. गा. २१ गाथा में कहा गया है-उक्त स्थानों में बैठे हुए साधु को यदि कोई उपसर्ग आ जावे तो साधु उनको सहन करे किन्तु किसी प्रकार की शंका से भयभीत होकर वहाँ से उठकर अन्य स्थान पर न जावे । तात्पर्य यही है कि श्मशान या अन्य निर्जन भूमि में बैठे हुए साधु को कदा. चित् किसी प्रकार का उपसर्ग आए या देवादि उन्हें किसी प्रकार का कष्ट पहुँचाएँ तो भी वह उनसे भयभीत न हो तथा वहाँ से उठकर अन्य स्थान पर जाने का विचार न करे । क्योंकि अगर साधु उपसर्गों से भयभीत होकर इधर-उधर जाने का प्रयत्न करेगा तो उसके स्वाध्याय तथा ध्यान आदि में बाधा पड़ेगी। इसलिये उपसर्गों को अपना परीक्षाकाल समझ कर उनको तुच्छ समझो और उन पर विजय प्राप्त करे। वास्तव में ही हम साधुओं को अनेक बार ऐसे स्थानों पर रहने का अवसर आता है । साधु कभी तो आलीशान मकान में रहता है और कभी टूटी झोंपड़ी भी उसे नसीब नहीं होती । लेकिन फिर भी हमें कोई दुःख महसूस नहीं होता। हर स्थिति में आनन्द का अनुभव होता है । फकीरी में आनन्द भी तभी आता है। एक पंजाबी कवि ने भी फकीरी की मस्ती का वर्णन करते हुए लिखा हैवाह, वाह, जी मौज फकीरां दी! कभी पौढ़ते रंगमहल में, कभी घास झपड़ियाँ दी। कभी ओढ़ते शाल-दुशाले, कभी गुदड़ियां लीरां दी। कभी चाबते चना चबेना, कभी लपक ले सोरां दी। बड़े-बड़े राजा महाराजा, धूल लगावत चरणां दी। - इस भजन में बताया गया है कि फकीरों की मस्ती का क्या कहना है, वे तो हर हाल में मौज से रहते हैं । वह किस प्रकार ? इस प्रकार कि कभी-कभी तो बड़े नगरों में उन्हें विशाल बिल्डिंगें रहने को मिलती हैं और गांवों में भी गढ़ और महलों में ठहरने का अवसर मिलता है, किन्तु कभी-कभी घास-फस की झोंपड़ियां भी नहीं मिलती तथा वृक्षों के नीचे या श्मशानों में भी रहना पड़ता है __इसी प्रकार चातुर्मास आदि में आहार में मेवा-मिष्टान्न भी आता है और Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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