Book Title: Anand Pravachan Part 05
Author(s): Anand Rushi, Kamla Jain
Publisher: Ratna Jain Pustakalaya

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Page 331
________________ स्वागत है पर्वराज! ३१॥ विवाह करने के लिए दूल्हा बनकर जा रहे थे, मार्ग में बाड़े में कैद पशुओं का हृदय विदारक करुण-क्रन्दन सुनाई पड़ा। - अपने सारथि से उन्होंने इसके बारे में पूछा और यह जानकर कि वे सब उनके विवाह में बरातियों का भोजन बनेंगे, उसी क्षण रथ को लौटा ले गये। उनके मन में उन मूक प्राणियों के लिए इतनी करुणा उपजी कि वे विवाह करना भूल गये और उसी क्षण आत्म-कल्याण के पथ पर बढ़ गये । अभी श्लोक में जो कहा गया है कि मनुष्य का जन्म चित्त को प्रसन्न करने वाली स्त्री को पा लेने के लिए नहीं मिला है, इस बात को नेमिनाथ ने पलक झपकते ही समझ लिया और तभी वे अपनी आत्मा का उद्धार कर सके। किसी कवि ने सत्य कहा है पाया है उच्च जीवन इसको विचारो कीमत । ऐसा प्रयत्न कर लो कुविचार मन से निकलें ॥ वस्तुत: जो व्यक्ति मनुष्य-जीवन की कीमत समझ लेता है वह कभी भी अपने मन में कुविचारों को स्थान नहीं देता। वह जान लेता है कि अच्छा खाने-पीने और भोग-विलास करने के लिये यह जीवन नहीं मिला है। जोवन जन्म-मरण का अन्त करने के लिए प्राप्त हुआ है। हमारे 'अन्तगड़ सूत्र' में जिन महान् आत्माओं का वर्णन आता है उनके विषय में हम क्यों पढ़ते और सुनते हैं ? इसीलिए कि उन्होंने मानव जीवन पाकर ऐसी करनी की थी कि उनकी आत्माओं को पुनः जन्म-मरण की आवश्यकता ही नहीं रही। उन महापुरुषों और महासतियों का नाम लेने से भी अपने पाप-कर्म क्षीण होते हैं । जैसे-'छिद्रहस्ते यथोदकम् ।' अर्थात् हथेली में लिये हुए पानी को बड़ी सावधानी से रखा जाय तो भी अगुलियों के बीच में रहे हुए छिद्रों से वह बूंद-बूद करके नीचे गिर जाता है। इसी प्रकार संत एवं सतियों की उत्तम करनी के विषय में सुनने पर भी हमारा मन कुछ न कुछ निर्मल अवश्य होता है अतः पाप कर्म कपी जल धीरे-धीरे झर जाता है। आप लोग कहा करते हैं कि इमली, नीबू अथवा ऐसे ही प्रिय पदार्थों का चिन्तन करने से मुंह में पानी आ जाता है। जबकि ये पदार्थ तो क्षणिक और महत्वहीन हैं। तब फिर महापुरुषों के गुण गान करने से मन में पवित्रता क्यों नहीं आएगी और उससे पाप क्यों नहीं घटेंगे ? मोक्षप्राप्ति - पयूषण पर्व में आठ दिन तक 'अन्तगड़ सूत्र' इसीलिए पढ़ा जाता है कि Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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