Book Title: Anand Pravachan Part 05
Author(s): Anand Rushi, Kamla Jain
Publisher: Ratna Jain Pustakalaya

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Page 330
________________ ३१० आनन्द प्रवचन | पांचवा भाग । पर उसने देखा कि जांघ का मांस कबूतर के वजन से कम है तो दूसरी जंघा भी काटी और उससे भी मांस निकालकर तराजू में डाला । पर कबूतर वाला पलड़ा तो जमीन से ऊंचा उठा ही नहीं। यह देखकर राजा शिवि ने पहले अपना एक पैर और फिर दूसरा पैर भी काटकर तराजू पर रख दिया कि अब तो कबूतर के बराबर वजन हो ही जाएगा। किन्तु बड़े आश्चर्य की बात हुई कि कबूतर का वजन उससे भी अधिक निकला । तब राजा ने अपना बांया हाथ भी काट कर तराजू के पलड़े पर रख दिया, पर हाल वही था। कपोत के बराबर वजन नहीं हो पाया और पलड़ा नीचे नहीं आया। यह देखकर भी शरणागतवत्सल शिवि के चेहरे पर एक भी शिकन नहीं आइ और वे स्वयं ही उस मांस वाले पलड़े पर बैठते हुए बाज से बोले-"भाई; मैं स्वयं ही इस तराजू में बैठा जा रहा हूँ और तुम निश्चित होकर मेरे मांस से अपनी भूख का निवारण कर लो।" इस प्रकार राजा शिवि शरणागत कपोत की रक्षा के लिये स्वयं मरने को तैयार हो गये और बाज के द्वारा खाये जाने की प्रतीक्षा करने लगे। उन्होंने आनन्द से अपने नेत्र मूद लिये और अन्तिम समय प्रभु का स्मरण करने लगे। . पर कुछ समय तक प्रतीक्षा करने पर भी उन्हें बाज के द्वारा खाये जाने का कोई लक्षण दिखाई नहीं दिया तो उन्होंने नेत्र खोले, पर महान् आश्चर्य के साथ देखा कि एक तरफ तो उनका अंग-अंग अलग हुआ शरीर पुन: अपनी पूर्व स्थिति में आता जा रहा है और दूसरी तरफ बाज और कपोत बने हुए इन्द्र तथा अग्निदेव अपने असली स्वरूपों में खड़े हैं । यह देखकर महाराज शिवि गद्गद् होकर उठे और दोनों देवताओं को नमस्कार किया । इन्द्र और अग्निदेव ने तब बताया कि हमने आपकी परीक्षा लेनी चाही थी और आप इसमें खरे उतरे हैं। आपकी करुणा और शरणागत रक्षा की भावना को धन्य है । आपके जैसा पुण्यात्मा तो हमारे स्वर्ग में भी नहीं है। यह कहकर दोनों देवता शिवि की सराहना करते हुए वहाँ से चल दिये । ___ तो बंधुओ, जो भव्य प्राणी जीवन के महत्व को तथा शरीर की अनित्यता को समझ लेता है, वह अपने शरीर से तनिक भी मोह नहीं रखता और अपनी दया तथा करुणा के कारण उसे समय आने पर औरों के लिए अर्पण भी कर देता है। भगवान नेमिनाथ के विषय में आप सब भली-भांति जानते हैं कि जब वे Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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