Book Title: Anand Pravachan Part 05
Author(s): Anand Rushi, Kamla Jain
Publisher: Ratna Jain Pustakalaya

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Page 334
________________ आनन्द प्रवचन | पांचवां भाग सम्यक रखे । अगर वह ऐसा नहीं करता तो प्रथम तो वह सम्यक चारित्र का पालन ही नहीं कर सकता और अगर क्रियाएँ उसने की भी तो वे शुद्ध फल प्रदायिनी नहीं होतीं। एक स्थान पर बताया भी है कि-- . "नो शुद्ध यन्ति विशुद्ध भावचपला नेते क्रियातत्पराः ।" अर्थात्-पवित्र भावों में अस्थिरता रखने वाले प्राणी पवित्र नहीं हुआ करते हैं, तथा अस्थिर विचार वाले ये प्राणी सम्यक चारित्र के प्रति भी स्थिर नहीं रह पाते। __ जो प्राणी ऐसा समझ लेते हैं वे स्वयं अपना कल्याण तो करते हैं, औरों के आत्म-कल्याण में भी सहायक बनते हैं । ऐवन्ता मुनि की माता यद्यपि एक मां थी और उनके हृदय में पुत्र के संयम लेने पर अपार दुःख का होना स्वाभाविक था किन्तु उन्होंने अपने पुत्र को आत्म-कल्याण में बाधा देना उचित नहीं समझा ; उलटे यह सुन्दर सीख दी "बेटा ! तू दीक्षा लेने जा रहा है। अत: मेरा विकल और दुखी होना स्वाभाविक है । तेरे प्रति रहा हुआ मोह मुझे सता रहा है एवं तेरा वियोग मेरे लिए अत्यन्त कष्टकर है। किन्तु फिर भी मेरा यही कहना है कि संयम ग्रहण करके तू ऐसी करनी करना, जिससे पुनः किसी माता को तुझे जन्म देकर रोना न पड़े। अर्थात् फिर जन्म लोगे तो फिर दीक्षा लेना पड़ेगी और वह माता भी मेरी तरह रोएगी अतः जन्म-मरण सदा के लिये मिट जाय, इस प्रकार की करनी करना।" एक माता की कितनी कल्याणकारी शिक्षा थी? आज तो हम देखते हैं कि अनेकों बाल-विधवाएँ जिन्हें दुख के कारण विरक्ति हो जाती है, उन्हें भले ही घर में रहने पर कोई नहीं पूछता, उलटे नाना प्रकार के कष्ट घरवाले देते हैं। पर अगर वे दीक्षा लेकर अपनी आत्मा का कल्याण करना चाहती हैं तो वे ही घरवाले, पड़ौसी और समस्त दूर के रिश्तेदार भी हितैषी बनकर आ खड़े होते हैं और तरहतरह के रोड़े अटकाते हैं। अगर बहन दृढ़ होती है तब तो वह किसी की परवाह न करती हुई साधना मार्ग को अपना ही लेती है. अन्यथा कमजोर दिल वाली फिर से जीवन भर निरर्थक प्रपंचों में पड़ी हुई दुख पूर्ण समय बिताती है और बिना मानव जन्म का लाभ उठाए इस संसार से विदा हो जाती है। आज इस प्रवचन स्थल पर भी एक प्रकार से भावदीक्षित उन्नीस बहनें उपस्थित हैं । इन सबकी भावना कुछ अध्ययन करके दीक्षा ग्रहण करने की है। मुझे Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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