Book Title: Anand Pravachan Part 05
Author(s): Anand Rushi, Kamla Jain
Publisher: Ratna Jain Pustakalaya

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Page 351
________________ सच्चे महाजन बनो! जन्म-मरण के दोनों पाटों के बीच में भी अनन्त जीव सदा पिसते रहते हैं, यानी जन्म लेते और मरते रहते हैं। ___ तो कबीर जैसे सभी महापुरुष इस भयानक चक्की को देखकर रो पड़ते हैं और इससे मुक्त हो जाने के लिए छटपटा उठते हैं। पर केवल छटपटाने या चाहने से ही तो आत्मा की मुक्ति जैसा महान् मनोरथ सिद्ध नहीं हो सकता। उसके लिए वे उपाय करते हैं और वह उपाय होता है धर्म का अवलम्बन ग्रहण करना । वे धर्म को ग्रहण करते हैं तथा दृढ़ता पूर्वक उसका पालन करते हुए भव-सागर को पार कर जाते हैं। एक कवि ने अपने पूर्व महापुरुषों का स्मरण करते हुए नई पीढ़ी को प्रेरणा दी है तथा कहा हैओ वीरों की सन्तान, करो कुछ ध्यान न फूट बढ़ाओ, अब तो निज धर्म बढ़ाओ। वे पूर्वज कितने नामी थे, बस एक प्रेम के हामी थे, जाति में अब तो प्रेम की धार बहाओ। __ अब तो निज धर्म बढ़ाओ। कवि का कथन है-'बन्धुओ ! आप लोग वीरों की सन्तान हो । किन वीरों की ? उन धर्मवीरों की जो धर्म के बल पर आत्मा के प्रबल शत्र आठों कर्मों से जीवन भर संघर्ष करते रहे और अन्त में उन्हें पछाड़ कर उनसे मुक्त हो गये।' हम सभी उन भगवान महावीर की संतान हैं, जिनके लिए सेवा करने वाले इन्द्र और त्रास देने वाला चण्डकौशिक समान थे। प्राणिमात्र के लिए जिनके अन्तःकरण में स्नेह की अजस्र सरिता प्रवाहित होती थी। किन्तु क्या आज हम उनके पदचिह्नों पर चल सके हैं ? नहीं,प्राणिमात्र के लिये तो क्या अपनी जैन जाति के प्रति भी हमारा अभिन्न भाव नहीं रहा है। परिणाम यह हुआ है कि भाई-भाई आपस में लड़ते हैं तथा धर्म के नाम पर अनेकों अनर्थ घट जाते हैं। ___ इसलिए अपने उन पूर्व पुरुषों का स्मरण करते हुए तथा सभी को महावीर का अनुयायी समझ करके आपसी वैमनस्य को मिटा डालो और फूट के अंकुरों को जड़ से उखाड़ दो । ऐसा करने पर ही हम अपने धर्म के प्रति वफादार बन सकेंगे तथा उसे सही स्वरूप में प्रतिष्ठित कर सकेंगे। हमें सदा चिन्तन करना है कि हमारे पूर्वज कैसे थे और उनके अन्तःकरण में जगत के समस्त जीवों के लिये स्नेह की कैसी जबर्दस्त भावना थी। वे जानते थे कि राग और द्वेष ये दोनों ही आत्मा को अधिकाधिक पतन की ओर ले जाने वाले हैं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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