Book Title: Anand Pravachan Part 05
Author(s): Anand Rushi, Kamla Jain
Publisher: Ratna Jain Pustakalaya

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Page 354
________________ आनन्द प्रवचन | पांचवां भाग इस प्रकार देवताओं की स्थिति बड़ी शोचनीय हो गई और उन्हें अपने त्राण का कोई उपाय नहीं सूझा । हारकर वे जगत्पालनकर्ता भगवान विष्णु की शरण में पहुंचे और उनसे सारा हाल बताया तथा अन्त में पूछा -- "भगवन् ! हमें इस संकट से मुक्ति कैसे मिल सकती है, इसका उपाय कृपा कर आप ही बताइये अन्यथा हम सब बेमौत मारे जाएंगे।" विष्णु ने उन्हें बताया कि और तो वृत्रासुर को मारने का कोई उपाय नहीं है, पर अगर महर्षि दधीचि की अस्थि से विश्वकर्मा वज्र बनाएँ तो उस वज्र के द्वारा इन्द्र वृत्रासुर को मार सकते हैं। अब समस्या यह सामने आई कि जीवित महर्षि दधीचि की अस्थियां कैसे प्राप्त की जाएँ ? उन महातपस्वी के साथ बलप्रयोग करके अस्थियां लेने का प्रयत्न करने पर तो वे देवताओं को शायद भस्म ही कर डालेंगे। सब विचार में पड़ गये कि क्या किया जाय ? अन्त में उन्हें केवल यही एक उपाय सूझा कि ऋषि से अस्थियों के लिए याचना की जाय । सब देवता अब महर्षि के आश्रम में पहुंचे और अपनी भयानक विपत्ति का उल्लेख करके उन्होंने उनसे अस्थि की याचना की। मांग भी कितनी अद्भुत थी ? जीवित व्यक्ति की हड्डियों की याचना करना क्या साधारण बात थी और क्या ऐसा दान कोई साधारण व्यक्ति कभी दे सकता है। किन्तु महर्षि असाधारण व्यक्ति थे। और इसीलिए देवताओं की संकोच भरी यह मांग सुनकर उनका हृदय उल्लास से भर गया। वे अपूर्व प्रसन्नता पूर्वक बोले"इसमें संकुचित होने की क्या बात है ? जन्म लिया है तो एक दिन मरना ही है । यह शरीर नश्वर है, अतः इसे निश्चय ही नष्ट होना है। मेरे लिये परम सौभाग्य की बात है कि इस देह के द्वारा कुछ उपकार हो सकेगा।" महर्षि दधीचि ने देवताओं को संबोधन करके पुनः कहा- "मैं अभी समाधि में स्थित होकर देहत्याग करता हूँ। आप लोग मेरी अस्थियां लेकर अपना उद्देश्य सिद्ध करें।" अपने कथनानुसार दधीचि आसन लगाकर समाधि में बैठ गए और योग के द्वारा शरीर का इस प्रकार त्याग कर दिया, जैसे कोई सड़ा-गला और पुराना वस्त्र उतार कर फेंक देता है। उसके पश्चात् जंगली पशुओं ने उनकी निष्प्राण देह से मांस को खा लिया तथा अवशिष्ट अस्थियों से विश्वकर्मा ने वज्र बनाया और अमरों ने संकट से छुटकारा प्राप्त किया। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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