Book Title: Anand Pravachan Part 05
Author(s): Anand Rushi, Kamla Jain
Publisher: Ratna Jain Pustakalaya

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Page 357
________________ सच्चे महाजन बनो! दर्शन कराना भी अनिवार्य है । अतः उन्हें स्वर्ग में लाने से पूर्व नरक में से एक बार गुजार कर लाना । यह ध्यान रखना कि वहाँ उन्हें किसी प्रकार का कष्ट न हो तथा किसी प्रकार का अपमान और तिरस्कार का अनुभव भी न हो। क्योंकि उनके सामान्य दोषों का फल एक बार उनके लिये नरक का दर्शन कर लेना ही काफी है।" धर्मराज की इस आज्ञा के अनुसार सेवक राजा के जीव को नरक के मध्य से ले चले । राजा के लिए तो वहाँ का मार्ग सुखद और कष्ट-रहित था किन्तु नारकीय जीवों की हृदय विदारक करुण-क्रन्दन की ध्वनियां उनके कानों में कुछ क्षण के लिये पड़ी और फिर बन्द हो गई। राजा ने चकित होकर पूछा-"ये कौन अभी-अभी चीत्कार कर रहे थे और करुण-क्रंदन कर रहे थे और करुण-क्रन्दन से कानों को फोड़ रहे थे।" . दूतों ने उत्तर दिया- "देव ! ये सब पापी जीव हैं जो नरक के कष्टों से दुखी होकर चीत्कार कर रहे थे।" ___ "पर उनकी चीत्कारें अब एक दम ही बंद कैसे हो गई ?" राजा ने और भी आश्चर्य से पुनः प्रश्न किया। धर्मराज के दूत बोले-"महाराज; आप जैसे असंख्य पुण्यों के अधिकारी यानी पुण्यात्मा पुरुष यहां से गुजर रहे हैं अतः आपके शरीर को स्पर्श करके बहने वाली शीतल वायु ने इन पापियों के नारकीय और दारुण ताप को कुछ पल के लिये शांत कर दिया है । यही कारण है कि वे चुप हो गये हैं।" इसी समय पुण्यात्मा नरेश को चारों ओर से आने वाली आवाजें सुनाई पड़ी कि-"महाराज ! आप अभी यहाँ से जाएं नहीं। आपके यहां खड़े रहने से हमारे जलते हुए शरीरों को बड़ी शांति मिली है । कृपया और कुछ देर रुकें।" राजा ने जब नारकीय जीवों के इन शब्दों को सुना तो उनके हृदय में उन 'लोगों के दुखों के कारण हलचल मच गई और उन्होंने कुछ पल मन में विचार करते हुए धर्मराज के दूतों से कहा-"तुम लोग जाओ । मेरे अगर यहां रहने से इन दुखी जीवों को कुछ शांति मिलती है तो मैं यहीं नरक में रहूंगा।" दूत राजा की बात सुनकर मुंह बाये खड़े रह गये, पर फिर अपने स्वामी धर्मराज के पास दौड़े और उन्हें पुण्यवान राजा की बात कह सुनाई, साथ ही कहा"प्रभ, हम उस धर्मात्मा पुरुष को बलपूर्वक भी नहीं ला सकते । वह तो कहता है मैं नरक में ही रहूँगा।" Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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