Book Title: Anand Pravachan Part 05
Author(s): Anand Rushi, Kamla Jain
Publisher: Ratna Jain Pustakalaya

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Page 309
________________ महल हो या मशान...! २८ विहारों में जब वे होते हैं तो मुट्ठीभर चने मिलने भी मुश्किल हो जाते हैं। यही हाल वस्त्रों का है जब मिलता है तो अच्छा वस्त्र प्राप्त हो जाता है और जब नहीं मिलता तो सी-साकर भी समय निकालना पड़ता है। किन्तु बंधुओ ! यही कारण है, अर्थात् उनके त्यागमय जीवन का प्रभाव ही है कि बड़े-बड़े राजा-महाराजा भी उनके सामने विनत होते हैं और उनके चरणों की धूल अपने मस्तक पर चढ़ाते हैं । अनेक सांसारिक व्यक्ति जो संसार से उदासीन तो होते हैं किन्तु उससे छुटकारा प्राप्त नहीं कर पाते । वे सदैव तरसते हैं कि वह दिन कब आएगा जब हम इन सांसारिक झमेलों से मुक्त होकर फकीर बन जाएंगे और निश्चित होकर भगवान की आराधना में समय गुजारेंगे। श्री भर्तृहरि ने भी अपने श्लोक में विरक्त पुरुषों की भावनाओं का चित्रण किया है वितीर्णे सर्वस्वे तरुणकरुणापूर्णहृदयाः स्मरन्तः संसारे विगुण परिणामा विधिगतीः । वयं पुण्यारण्ये परिणतशरच्चन्द्र किरण स्त्रियामां नेष्यामो हरचरणचित्तं कशरणाः ।। भव्य पुरुषों की भावना रहती है कि कब हम सर्वस्व त्यागकर करुणापूर्ण हृदय से संसार और संसार के पदार्थों को सारहीन समझकर केवल शिवचरणों को अपना रक्षक समझते हुए शरदचन्द्र की चाँदनी में किसी पवित्र वन में बैठे हुए रातें बिताएंगे? कहने का अभिप्राय यही है कि संत जीवन और दूसरे शब्दों में त्यागमय जीवन इतना पवित्र और कल्याणकारी होता है कि उसको अपनाने के लिये मुमुक्ष प्राणी तरसते रहते हैं । __ तो मैं आपको बता यह रहा था कि भगवान के आदेशानुसार साधु को किसी भी निर्जन स्थान, मंदिर या श्मशान भूमि में ही क्यों न रहना पड़े उन्हें बिना किसी भय और व्याकुलता के ठहरना चाहिये तथा कष्टों या उपसर्गों की परवाह किये बिना अपने समय पर चिन्तन-मनन, स्वाध्याय आदि कार्य सम्पन्न करना चाहिये । हम लोगों को विचरण करते समय अनेक प्रकार के अनुभव होते हैं । सोजत की एक घटना है कि वहाँ पर एक तपस्वी मुनि को रात्रि में ठहरना था। पूछ-ताछ करने पर किसी व्यक्ति ने कोई बड़ा भारी किन्तु पूरी तरह सूना मकान ठहरने के लिये बताया । मकान सूना इसलिये था कि उस घर में उसके मृत मालिक का उत्पात होने से कोई व्यक्ति उसमें रहने की हिम्मत नहीं करता था। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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