Book Title: Anand Pravachan Part 05
Author(s): Anand Rushi, Kamla Jain
Publisher: Ratna Jain Pustakalaya

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Page 318
________________ २६८ आनन्द प्रवचन | पांचवां भाग पर इन सबसे रहित जो स्थान मिल जाय वह चाहे अनुकूल हो या प्रतिकूल एक ही भाव से ग्रहण करे और संयम की दृढ़ता का परिचय देवे । ऐसे सन्त ही साधना के पथ पर अविचलित भाव से चल सकते हैं तथा अपनी आत्मा का कल्याण कर सकते हैं । एक कवि ने ऐसे समभावी और ज्ञानी सन्त • खोज करते हुए लिखा है :-- मिलें कब ऐसे गुरु ज्ञानी ? यश-अपयश जीवन-मरण अरु सुख-दुख एक समान । मित्र-रिपु एक समलेखे जो मन्दिर और मसान ।। एक सम गिने लाभ हानि, मिलें कब ................."। काच समान गिने रतनों को माने धन को धूल । प्यार-मार को एकसम जाने फूल बराबर शूल ॥ एक है दासी और रानी, मिलें कब ................ कवि का कहना है ---मुझे ऐसे ज्ञानी गुरु कब मिलेंगे जो यश और अपयश को समान समझते होंगे। आज प्रत्येक व्यक्ति अपनी प्रशंसा सुनकर फूला नहीं समाता और निन्दा होने पर क्रोध और बदले की भावना से जल उठता है। पर ज्ञानी पुरुष ऐसा नहीं करते वे यश की आकांक्षा नहीं करते और अपयश की परवाह नहीं करते । वैष्ण व साहित्य में एक कथा है :विजय का भी तिरस्कार एक बार व्रज में एक विद्वान ब्राह्मण दिग्विजय करते हुए पहुंचे। वहाँ पहुंचकर उन्होंने व्रज के विद्वानों को भी शास्त्रार्थ के लिए चुनौती दी। किन्तु वहाँ के विद्वानों ने कहा-हमारे व्रज में तो सनातन गोस्वामी और उनके भतीजे जीव गोस्वामी ही श्रेष्ठ विद्वान हैं। अगर वे आपको विजय पत्र लिख दें तो हम सभी उस पर हस्ताक्षर कर देंगे। यह सुनकर दिग्विजयी पण्डित सनातन गोस्वामी के यहां पहुंचे और उनसे कहा-"स्वामीजी या तो आप मुझसे शास्त्रार्थ कीजिये या फिर विजय पत्र पर हस्ताक्षर कर दीजिये। गोस्वामी जी ने दिग्विजयी की बात सुनकर बड़ी नम्रता से कहा --- "भाई ! अभी हमने शास्त्रों का मर्म ही कहाँ समझा है ? हम तो विद्वानों के सेवक हैं। यह कहते हुए उन्होंने विजय पत्र लिखकर दे दिया ।" Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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