Book Title: Anand Pravachan Part 05
Author(s): Anand Rushi, Kamla Jain
Publisher: Ratna Jain Pustakalaya

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Page 317
________________ मिलें कब ऐसे गुरु ज्ञानी ? २९७ साधारणतया शैय्या का ऊँचापन शीत को कम करता है और उसका नीचा. पन शीतबाधा या शीत के कष्ट का कारण बनता है। पर तपस्वी साधु जैसी भी जगह उपलब्ध हो वहाँ शांतिपूर्वक सहन करे, शीत या उष्ण का कुछ कष्ट भी हो तो वह उसे सहन करे । वह कभी भी अपने आपको शीतादि सहन करने में असमर्थ मानकर अपने ध्यान, चिंतन अथवा स्वाध्याय आदि के समय का अतिक्रमण न करे ! क्योंकि अगर वह अच्छे स्थान की तलाश में तप एवं स्वाध्याय आदि के समय का उल्लघन करता है तो यह मानना चाहिये कि उसकी दृष्टि शारीरिक सुख में है तप-स्वाध्याय में नहीं । और शरीर को सुख पहुंचाने की दृष्टि रखने वाला साधक शरीर के प्रति विरक्त कैसे रह सकता है। वैसे आप गृहस्थ भी जब एक शहर से दूसरे शहर में जाते हैं तो ट्रेनों में स्थान न मिलने पर रात को जगते हैं, स्टेशन पर भी कष्ट उठते हैं और जैसा मिलता है वैसा बाजार का खाकर रहते हैं। यह तो नहीं कहते कि घर में हम इस तरह सोते थे, इस तरह बैठते थे और ऐसा खाते थे अतः बाहर के ये दुख हम सहन नहीं करते । तो आप भी जब घर से बाहर निकलते हैं तो अपने घर को अपेक्षा कुछ कष्टकर स्थानों में रहते हैं और कई तरह की मुसीबतें उठाते हैं। तो फिर हमने तो साधुत्व ग्रहण किया है और सभी सांसारिक सुखों से मुंह मोड़ा है पर तब भी अगर परिषहों से घबराकर अपने नित्य-नियम तथा स्वाध्यायादि में बाधा डालें तो संयम का पालन किस प्रकार होगा ? भगवान की वाणी में साधु को तो यह विचार करना चाहिये : पइरिक्कुवस्सयं लद्ध, कल्लाणमहव पावयं । किमेगराइ करिस्सइ, एवं तत्थऽहियासए । -उत्तराध्ययन सूत्र, अ० २ गा० २३ साधु क्या विचारे ? इस विषय में कहा है -स्त्री, पुरुष, पंडक आदि से रहित कल्याणकारी उपाश्रय पाकर भी अथवा पापरूप उपाश्रय को प्राप्त करके भी वह हर्ष या शोक का अनुभव न करता हुआ यह सोचे कि यह स्थान एक रात्रि में मेरा क्या बिगाड़ लेगा? यह विचार कर वहाँ होने वाले शीत या उष्णादि के परिषहों को सहन करें। सारांश यही है कि साधु विचरण करते समय यह ध्यान तो रखे कि उस स्थान पर कोई स्त्री अकेली न रहती हो, पशु न बँधते हों और कोई नपुंसक न हो। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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