Book Title: Anand Pravachan Part 05
Author(s): Anand Rushi, Kamla Jain
Publisher: Ratna Jain Pustakalaya

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Page 310
________________ २६० आनन्द प्रवचन | पांचवां भाग तपस्वी मुनि को तो इस बात का पता था नहीं, और होता भी तो संत उपसर्गों से कभी घबराते नहीं, किन्तु मुनि को मकान बनाने वाले व्यक्ति के मन में उन पर घटने वाले उत्पात के द्वारा तमाशा देखने की भावना थी। खैर-मुनि निस्संकोच उस व्यक्ति से आज्ञा लेकर वहाँ ठहर गये । वैसे मकान के विषय में लोगों का कहना असत्य नहीं था कि उसके मालिक की इच्छा उसमें रह गई थी अतः वह वहां रहने के लिये आने वाले व्यक्तियों को परेशान करता था और नाना प्रकार के उपद्रव करके उन्हें टिकने नहीं देता था। कहा भी जाता है-'जहाँ आशा बहाँ वासा।' इस उक्ति के अनुसार उस घर का मालिक वहाँ वास करता था। हमारे ज्ञाता धर्म कथा सूत्रों में नन्दन मणियार का वर्णन आता है कि उसने धर्मशालाएँ, कुए तथा बाबड़ी आदि बनवाई, किन्तु उन्हें वह देख नहीं पाया, अतः उन्हें देखने की इच्छा लिये हुए मर जाने के कारण वह अपने कुए में ही मेंढ़क बन गया। इसी प्रकार सोजत में जिस मकान में तपस्वी मुनि ठहरे थे उसमें वहाँ के मालिक की आत्मा मंडराती रहती थी : मुनि वहाँ ठहर तो गये किन्तु रात्रि होने पर उसके मालिक ने आकर मुनि को तंग करना ही नहीं मार डालने का भी प्रयत्न किया। किन्तु मुनि साधारण मुनि नहीं वरन तपस्वी थे और तप की महिमा देवताओं को भी रक्षा करने के लिये बाध्य कर देती है। इसलिये मकान का मृत मालिक मुनि की कुछ भी हानि नहीं कर सका पर उनसे बोला - "महाराज ! आपको नमस्कार है, पर आप मेरे घर में क्यों ठहरे ? मैं तो किसी को भी यहाँ ठहरने नहीं देता।" मुनिराज ने शांति से उसकी बात सुनीं और फिर मन्द-मन्द मुस्कुराते हुए कहा- "भाई ! मुझे तो किसी व्यक्ति ने वहां ठहरने की आज्ञा दी थी अत: मैं ठहर गया। पर इस घर से तुम्हारा इतना मोह था तो तुम इसे अपने साथ क्यों नहीं ले गये ? और जब साथ नहीं ले जा सके तो फिर अब दूसरों को दुख देकर क्यों अपने पाप-कर्मों की शृंखला बढ़ा रहे हो ? मेरा तो तुम्हें यही कहना है कि तुम अपने अब तक के किये पापों का पश्चात्ताप करो तथा अपने स्थान पर जाओ।" इस प्रकार मुनिराज ने उस आत्मा को बोध देते हुए अपनी साधना के साथ रात्रि व्यतीत की। कहने का सारांश यही है कि साधुओं को अवसर आने पर किसी भी स्थान पर ठहरना पड़ता है और वे निर्भय होकर ठहरते हैं । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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