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अकाल की रेखाएँ | | ... लेकिन वैरागी भद्रबाहु का मन घर में नहीं लगा। एक दिन वे अपने माता-पिता से बोले - |
हे माँ! इस असार संसार में धर्म ही /पुत्र! तेरी ये बाल्यावस्था, उस पर कोमल शरीर एकमात्र शरण है; अत: मैं मुनिधर्म को ।। और कहाँ वह कठोर तपश्चरण... मुझे आघात आराधना करना चाहता हूँ। माँ! मुझे सहर्ष/ पहँचानेवाले तेरे ये निष्ठुर वचन योग्य नहीं।
आज्ञा प्रदान करें।
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[अरी माँ! संयम के बिना तो यह जन्म वैसे ही || और फिर भद्रबाहु ने मोहीजनों को समझाकर, निष्फल है, जैसे सुगन्धरहित फूल। फिर क्या जङ्गल में जाकर केशलोंच करके गोवर्द्धनाचार्य जर्जरित वृद्धावस्था में धर्म -
से जिनदीक्षा अङ्गीकार कर ली। उत्तम हैं, पर मेरा मोह..
किया जाएगा?
/ पुत्र! तेरे वचन तो
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