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अकाल की रेखाएँ / 16
भद्रबाहु के जाने के पश्चात् कई दिनों तक देश में शोक रहा ।
अरे! अब निःस्वार्थभाव से हम पर कौन उपकार करेगा ?
वही देश भाग्यशाली है, जहाँ श्रेष्ठ चारित्रधारी मुनिराज विहार करते हों ।
उधर जब भद्रबाहु कर्नाटक पहुँचे तो भयङ्कर जङ्गल में मुझे आचार्यपद एवं संघ का आश्चर्यजनक ध्वनि सुनी।
परित्याग करके समाधि लेना ही योग्य है।
अरे! ये अपशकुन... !! लगता है अब मेरी आयु थोड़ी
रह गयी है।
जब समाधि का दृढ़ निश्चय करके आचार्य भद्रबाहु ज्येष्ठ मुनि विशाख को आचार्यपद सौंपकर जाने लगे, तो नवदीक्षित चन्द्रगुप्त मुनि बोले.....
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भगवन्! मैं समाधि के 12 वर्ष तक आपकी सेवा करता रहूँगा, अपने चरणों में शरण दें नाथ ।
नहीं ! नहीं !! तुम सब जाओ।