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जैन आगम : एक परिचय]
सातवें उद्देशक में बताया गया है कि साधु स्त्री को और साध्वी पुरुष को दीक्षा न दे। यदि परिस्थितिवश ऐसा करना पड़े तो शीघ्र ही स्त्री को साध्वीसंघ में और पुरुष को श्रमणसंघ के सुपुर्द कर दे। __ आठवें उद्देशक में वस्त्र, पात्र आदि की मर्यादा बताई गई है। साथ ही आहार की चर्चा में अल्पाहारी, द्विभागप्राप्त, प्रामाणोपेताहारी तथा अवमौदरिक साधु के आहार का परिमाण बताया है।
नवें उद्देशक में भिक्षु प्रतिमाओं का वर्णन है। दसवें उद्देशक में यवमध्यचन्द्रप्रतिमा या वज्रमध्यचन्द्रप्रतिमा का स्वरूप बताया गया है।
व्यवहार के आगम, श्रुत, आज्ञा, धारणा और जीत व्यवहार ये पाँच प्रकार हैं। इनमें आगम का स्थान प्रथम है।
स्थविरों के ३ भेद, शैक्ष-भूमियों के ३ प्रकार, दस प्रकार की वैयावृत्य का वर्णन है और बताया गया है कि वैयावृत्य से महानिर्जरा होती है।
विशेषताएँ- इस आगम की अनेक विशेषताएँ हैं । सर्वप्रथम, इसमें स्वाध्याय पर विशेष बल दिया गया है। साथ ही अयोग्य काल में स्वाध्याय नहीं करना चाहिए, ऐसा बताया गया है । अनध्याय काल की विवेचना भी की गई है। दूसरे, श्रमण-श्रमणियों के मध्य अध्ययन की सीमाएँ निर्धारित की गई हैं। साध्वियों के निवास, चर्या, उपधान, वैयावृत्य आदि के नियम निर्धारित किये गये हैं। तीसरे, संघ व्यवस्था के नियमोपनियमों का विवेचन किया गया है। चौथे, आहार के सम्बन्ध में अल्पाहारी, ऊनोदरी
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