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[ जैन आगम : एक परिचय
उत्थित - उत्थित में साधक आत्मा से भी खड़ा होता है और शरीर से भी । उत्थित - निविष्ट में शरीर से तो खड़ा होता है लेकिन अशुभभावों में रमण करने के कारण आत्मा से बैठ जाता है । उपविष्ट - उत्थित में शारीरिक अस्वस्थता अथवा निर्बलता के कारण शरीर से तो बैठा रहता है किन्तु उसकी आत्मा शुभभावों में रमण करती है । उपविष्ट - निविष्ट कायोत्सर्ग में साधक शरीर और आत्मा दोनों प्रकार से ही बैठा रहता है । यह कार्योत्सर्ग नहीं, किन्तु दम्भ मात्र है ।
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६६.
छठा अध्ययन प्रत्याख्यान है । प्रत्याख्यान का अर्थ है त्याग करना । अनुयोगद्वार में इसका दूसरा नाम 'गुणधारण' है ।
प्रत्याख्यान के दो भेद हैं- (१) मूलगुणप्रत्याख्यान, और (२) उत्तर- गुणप्रत्याख्यान ।
मूलगुणप्रत्याख्यान के भी दो भेद हैं- (१) सर्वमूलगुणप्रत्याख्यान, और (२) देशमूलगुणप्रत्याख्यान । इसी प्रकार उत्तरगुणप्रत्याख्यान के भी सर्व और देश की अपेक्षा दो भेद हैं। मूलगुण यावज्जीवन के लिए धारण किये जाते हैं और उत्तरगुण समय की मर्यादा के साथ । श्रावक के लिए तीन (३) गुणव्रत और चार (४) शिक्षाव्रत देशउत्तरगुण- प्रत्याख्यान है। अनागत, अतिक्रान्त, कोटिसहित, नियन्त्रित साकार, निराकार, परिमाणकृत, निरवशेष, सांकेतिक, अद्धासमय - यह दस प्रकार का प्रत्याख्यान सर्वउत्तरगुणप्रत्याख्यान है जो श्रमण और श्रावक दोनों के लिए है ।
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प्रत्याख्यान आवश्यक संयम साधना में तेजस्विता लाता है और त्याग - वैराग्य को दृढ़ता प्रदान करता है, इसलिए प्रत्येक
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