Book Title: Agam ek Parichay
Author(s): Madhukarmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti

View full book text
Previous | Next

Page 68
________________ जैन आगम : एक परिचय] ६७ साधक को प्रत्याख्यान करना आवश्यक है। द्रव्य और भाव- ऊपर वर्णित छहों आवश्यक द्रव्य और भाव दोनों अपेक्षाओं से पालनीय हैं। द्रव्य का अर्थ है बाह्य दृष्टि और कार्यकलाप तथा भाव का अभिप्राय अन्तरंग से है। उदाहरणार्थसामायिक में बैठना आदि शारीरिक क्रियाएँ द्रव्य हैं और आत्मा का स्थिरता शुभ-शुद्धभावों में रमण करना भाव। इसी तरह चतुर्विंशतिस्तव, वन्दन आदि में भी समझ लेना चाहिए। भावप्रत्याख्यान का अभिप्राय कषाय तथा दोषों के त्याग से है और द्रव्यप्रत्याख्यान का भौतिक उपभोग-परिभोग सामग्री के त्याग से। यह स्मरणीय है कि साधना के प्रत्येक मार्ग में भाव का ही अधिक महत्व है, द्रव्य का बहुत कम । बाह्य क्रियाओं का महत्व तभी है जब अन्तरंग भी उनमें रमा हो। महत्व- प्रस्तुत आगम बहुत ही महत्वपूर्ण है। वैदिक परम्परा की सन्ध्या, ईसाई धर्म की प्रार्थना, बौद्धधर्म की उपासना और इस्लाम-धर्म की नमाज से भी बढ़ कर स्थान जैनधर्मसम्मत आवश्यक का है। यह दोषशुद्धि गुणवृद्धि के लिए राम-रसायन के समान है, संजीवनी बूटी है। उपरोक्त पृष्ठों में बत्तीस (३२) आगमों का संक्षिप्त परिचय दिया गया है । आगम तो रत्नाकर के समान गूढ़ रहस्यों से भरे और अति विशाल एवं धन-गम्भीर हैं। इनकी विषय-वस्तु का दिग्दर्शनमात्र ही यहाँ हो सका है। एक प्रश्न यह है कि आगम तो अधिक हैं, किन्तु स्थानकवासी परम्परा इन ३२ को ही क्यों प्रमाणभूत मानती है? इस प्रश्न का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106