Book Title: Agam ek Parichay
Author(s): Madhukarmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 66
________________ जैन आगम : एक परिचय] ६५ साधना के क्षेत्र में मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और अशुभ योग ये पाँच भयावह दोष हैं । साधक को इन दोषों को दूर करके और इनके प्रतिपक्षी गुणों को धारण करना चाहिए। जैसे मिथ्यात्व को त्याग कर सम्यक्त्व, अविरति को त्यागकर विरति, प्रमाद के स्थान पर अप्रमाद, कषाय के बदले उपशम और संसार बढ़ाने वाले अशुभयोगों के स्थान पर शुभयोग में प्रवृत्ति करना तथा अन्त में योग निरोध कर 'सर्व-संवर' की भूमिका में पहुँचनासाधक का लक्ष्य है। काल की दृष्टि से प्रतिक्रमण के पाँच भेद हैं- (१) दैवसिक (२) रात्रिक (३) पाक्षिक (४) चातुर्मासिक और (५) सांवत्सरिक। पाँचवा अध्ययन कायोत्सर्ग है। अनुयोगद्वार में कायोत्सर्ग का दूसरा नाम 'व्रणचिकित्सा' दिया गया है। धर्मसाधना अथवा जीवन व्यवहार के समय प्रमादवश जो भूलें हो जाती हैं, आध्यात्मिक शब्दावली में वे 'व्रण' कहे गये हैं। कायोत्सर्ग एक प्रकार की औषधि है जो उन्हें ठीक करती है। 'कायोत्सर्ग' का शाब्दिक अर्थ काय का उत्सर्ग है। काय के उत्सर्ग का सही अभिप्राय काय की ममता-ममत्व का त्याग है। कायोत्सर्ग के चार रूप बताये हैं (१) उत्थित-उत्थित, (२) उत्थित-निविष्ट, (३) उपविष्ट-उत्थित, और (४) उपविष्ट-निविष्ट । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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