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आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन
[ खण्ड : १
तरह लोगों को अपने जाल में फंसाता है" गोशालक के प्रभाव को ही व्यक्त करता है। प्रश्न होता है, वे चरित्र-संयम व साधना की दृष्टि से बुद्ध व महावीर जितने ऊंचे नहीं थे, तो आजीवक संघ इतना विस्तृत कैसे हो सका ? इसके सम्भावित कारण हैं- भविष्य सम्भाषण व कठोर तपश्चर्या । महावीर' व बुद्ध के संघ में निमित्त-सम्भाषण वर्जित था । गोशालक व उनके सहचारी इस दिशा में उन्मुक्त थे । पार्श्वनाथ के पार्श्वस्थ भिक्षु मुख्यतया निमित्त सम्भाषण से ही आजीविका चलाते थे । गोशालक को निमित्त सिखलाने वाले भी उन्हीं में से थे और वे ही उनके मुख्य सहचर थे तपश्चर्या भी आजीवक संघ की उत्कट थी । जैनआगम इसका मुक्त समर्थन करते हैं । बौद्ध निकाय भी गोशालक के तपोनिष्ठ होने की सूचना देते हैं । " गवेषकों की सामान्य धारणा भी इसी पक्ष में है । आचार्य नरेन्द्रदेव के अनुसार आजीवक पंचाग्नि तापते थे । उत्कटुक रहते थे । चमगादड़ की भांति हवा में झूलते थे । उनके इस कष्ट तप के कारण ही समाज में इनका मान था । लोग निमित्त, शकुन, स्वप्न आदि का फल इनसे पूछते थे ।
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बहुत सारी त्रुटियों के रहते हुए भी गोशालक का समाज में आदर पा जाना इसलिए अस्वाभाविक नहीं है कि तप और निमित्त दोनों ही भारतीय समाज के प्रधान आकर्षण सदा से रहे हैं।
नाम और कर्म
गोशालक के नाम और कर्म (व्यवसाय) के विषय में भी नाना व्याख्याएं मिलती हैं । जैन आगमों की सुदृढ़ और सुनिश्चित धारणा है ही कि गोशालक मंख करने वाले मंखलि नामक व्यक्ति के पुत्र थे । भगवती, उवासगदसाओ आदि आगमों में गोसाले मंखलीपुत्त अर्थात् गोशालक मंखलिपुत्र शब्द का प्रयोग हुआ है । यहां मंखलिपुत्र शब्द को गोशालक के एक परिचायक विशेषण के रूप में व्यवहृत किया गया है। मंख शब्द का अर्थ कहीं चित्रकार® व कहीं चित्र विक्रेता किया गया है, पर, वास्तविकता के निकट टीकाकार अभयदेवसूरि का यही अर्थ लगता है - चित्रफलकं हस्ते गतं यस्य स तथा —- तात्पर्य, जो चित्रपट्टक हाथ में रखकर आजीविका करता है । मंख एक जाति थी और उस जाति के लोग शिव या किसी देव का चित्रपट्ट हाथ में रखकर अपनी आजीविका चलाते थे । डाकोत
१. णिसी हज्झयणम्, उ०१३-६६, दसवेयालिअ अ०८ गा० ५० ।
२. विनय पिटक, चुल्लवग्ग, ५-६-२ ।
श्लोक
३. आवश्यक पूर्णि, पत्र २७३ ; त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्रम्, पर्व १०, सर्ग ४, १३४-३५; तीर्थंकर महावीर, भा० २, पृ० १०३ ।
४. आजीवियाणं चउव्विहे तवे पं० तं०- उग्ग तवे घोर तवे रसणिज्जूहणता जिब्भि
दियपडिलीणता ।
-ठाणांग सूत्र,
५. संयुक्त निकाय १०, नाना तित्थिय सुत्त ।
६. बौद्ध धर्म-दर्शन, पृ० ४ ।
७. B. C. Law, Indological Studies, Vol. II, p. 254. ८. Dictionary of Pali Proper Names, Vol. II, p. 400.
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ठा० ४, उ० २, सू० ३०६ ।
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