________________
३२
आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन
[खण्ड : १
गोशालक-सम्बन्धी कुछ बातें प्रकारान्तर से मिलती हैं । उसके अनुसार गोशालक पार्श्वनाथ परम्परा के एक मुनि थे। महावीर की परम्परा में आकर वे गणधर पद पर नियुक्त होना चाहते थे। महावीर के समवसरण में जब इनकी नियुक्ति गणधर-पद पर नहीं हुई, तब वे वहां से पृथक् हो गये। श्रावस्ती में आकर वे आजीवक सम्प्रदाय के नेता बने और अपने को तीर्थङ्कर कहने लगे । वे उपदेश भी ऐसा देते-"ज्ञान से मोक्ष नहीं होता, अज्ञान से ही मोक्ष होता है। देव या ईश्वर कोई है ही नहीं ; इसलिए स्वेच्छापूर्वक शून्य का ध्यान करना, चाहिए।"
त्रिपिटकों में
सबसे बुरा
बुद्ध तत्कालीन मतों व मत-प्रवर्तकों में आजीवक संघ और गोशालक को सबसे बुरा समझते थे । सत् पुरुष और असत् पुरुष का वर्णन करते हुए वे कहते हैं : "कोई व्यक्ति ऐसा होता है जो कि बहुत जनों के अलाभ के लिए होता है, बहुत जनों की हानि के लिए होता है, बहुत जनों के दुःख के लिए होता है, वह देवों के लिए भी अलाभकारक और हानिकारक होता है ; जैसे-मक्खली गोशाल। गोशा से अधिक दुर्जन मेरी दृष्टि में कोई नहीं है। जैसे धीवर मछलियों को जाल में फंसाता है, वैसे वह मनुष्यों को अपने जाल में फंसाता है।"२ प्रसंगान्तर से बुद्ध यह भी कहते हैं : "श्रमणधर्मों में सबसे निकृष्ट और जघन्य मत गोशाल का है, ठीक वैसे ही जैसे कि सब प्रकार के वस्त्रों में केश निर्मित कम्बल निकृष्ट होती है। वह कम्बल शीतकाल में शीतल, ग्रीष्मकाल में उष्ण तथा दुर्वर्ण, दुर्गन्ध, दुःस्पर्श वाली होती है। जीवनव्यवहार में ऐसा ही निरुपयोगी गोशाल का नियतिवाद है।"
बुद्ध के अनुयायी भी आजीवकों को घणा की दृष्टि से देखते थे। जेतवन में रहते एक बार बुद्ध ने भिक्षुओं को वर्षा-स्नान की आज्ञा दी। भिक्षु वस्त्र-विमुक्त हो स्नान करने लगे। प्रमुख बुद्ध-श्राविका विशाखा की दासी भोजन-काल की सूचना देने आराम में आई। नग्न भिक्षुओं को देख, उसने सोचा, ये आजीवक हैं। विशाखा से जाकर कहा-आराम में शाक्य
१. मसयरि-पूरणारिसिणो उप्पण्णो पासणाहतित्थम्मि। सिरिवीर समवसरणे अगहियझुणिणा नियत्तेण ॥ बहिणिग्गएण उत्तं मज्झं एयार सागंधारिस्स। णिग्गइ झूणीण अरहो, णिग्गय विस्सास सीसस्स ॥ ण मुणइ जिणकहिय सुयं संपइ दिक्खाय गहिय गोयमओ। विप्पो वेयब्भासी तम्हा मोक्खं ण णाणाओ। अण्णाणाओ मोक्खं एवं लोयाण पयडमाणो हु। देवो अ णत्थि कोई सुण्णं झाएह इच्छाए ।
-भावसंग्रह, गाथा १७६ से १७९ २. अंगुत्तर निकाय, १-१८-४:५। ३. टीका ग्रन्थों के अनुसार यह कम्बल मनुष्य के केशों से बनती हैं। ४. The Book of Gradual Sayings, vol. I, p. 265.
Jain Education International 2010_05
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org