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आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन
[खण्ड:१
है कि किसी भी धर्म या सम्प्रदाय की साधारण व्युत्पत्तियां उसके उत्कर्ष काल में गुरुतामलक नवीन व्याख्याएं ले लेती हैं। सम्प्रदायों के इतिहास में इसके अनेक उदाहरण मिल सकते हैं।
गोशालक की श्रमण-परम्परा को त्रिपिटकों में 'आजीवक' तथा आगमों में 'आजीविक' कहा गया है। दोनों ही शब्द एकार्थक से ही हैं । लगता है, प्रतिपक्ष के द्वारा ही यह नामनिर्धारण हुआ है। आजीवक व आजीविक शब्द का अभिप्राय है-आजीविका के लिए ही तपश्चर्या आदि करने वाला ।' आजीवक स्वयं इनका क्या अर्थ करते थे, यह कहीं उल्लिखित नहीं मिलता। हो सकता है, उन्होंने भिक्षाचरी के कठोर नियमों से आजीविका प्राप्त करने के श्लाघार्थ में इसे अपना लिया हो। जैन आगमों की तरह बौद्ध पिटकों में भी उनकी भिक्षाचरी-नियमों के कठोर होने का उल्लेख है । मज्झिमनिकाय के अनुसार उनके बहुत सारे नियम निर्ग्रन्थों के समान और कुछ एक नियम उनसे भी कठोर होते हैं।
गोशालक का संसार-शुद्धिवाद आगमों और त्रिपिटकों में बहुत समानता से उपलब्ध होता है, जिसके उल्लेख पूर्ववर्ती सम्बन्धित प्रकरणों में आ चुका है। चौरासी लाख महाकल्प का परिमाण आगमों की सुपष्ट व्याख्या से मिलता है। डा. बाशम' ने इन सारे विषयों पर बहुत विस्तार से लिखा है।
जैन और आजीवकों में सामीप्य
जैन और आजीवकों के अधिकांश प्रसंग पारस्परिक भर्त्सना के सूचक हैं, वहाँ कुछ एक विवरण दोनों के सामीप्य सूचक भी हैं। उसका कारण दोनों के कुछ एक आचारों की समानता हो सकती है। नग्नत्व दोनों परम्पराओं में मान्य रहा है। दोनों परम्पराओं ने इन विशेषताओं को लेकर ही अन्य धार्मिकों की अपेक्षा एक दूसरे को श्रेष्ठ माना है। जैन आगम बतलाते हैं-तापस ज्योतिष्क तक, कांदर्पिक सौधर्म तक, चरक परिव्राजक ब्रह्मलोक तक, किल्विषिक लातक कल्प तक, तिर्यंच सहस्रार कल्प तक, आजीवक व आभियोगिक अच्युत कल्प तक, दर्शन-भ्रष्ट वेषधारी नवम अवेयक तक जाते हैं। यहां आजीवकों के मरकर
१. देखें, भगवती सूत्र वृत्ति, शत० १, उ० २; जैनागम शब्द संग्रह, पृ० १३४; Hoernle, Ajivkas in Encyclopaedia of Religion and Ethics ;
E.J. Thomas, Buddha, p. 130. २. महासच्चक सुत्त, १-४-६ । ३. The History and Doctrines of Alivakas. ४. तापस-स्वतः गिरे हुए पत्तों का भोजन करने वाले साधु;
कान्दर्पिक-परिहास और कुचेष्टा करने वाले साधु; चरक परिव्राजक--डाका डालकर भिक्षा लेने वाले त्रिदण्डी तापस; कल्विषिक-चतुर्विध संघ तथा ज्ञानादिक के अवगुण बोलने वाले साधु आभियोगिक-विद्या, मन्त्र, वशीकरण आदि अभियोग-कार्य करने वाले साधु; दर्शन-भ्रष्ट-निह्नव।
-भगवती सूत्र, शतक १, उ०२।
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