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इतिहास और परम्परा]
गोशालक
जाति के लोग आज भी 'शनि' देव की मूर्ति या चित्र पास रखकर आजीविका उपार्जित करते हैं।
त्रिपिटक परम्परा में इस आजीवक नेता को मक्खलि गोशाल कहा गया है। मक्खलि नाम उसका क्यों पड़ा, इस सम्बन्ध में भी एक विचित्र-सी कथा बौद्ध परम्परा में प्रचलित है; जिसके अनुसार गोशालक दास था। एक बार वह तेल का घड़ा उठाये आगे-आगे चल रहा था और उसका मालिक पीछे-पीछे। आगे फिसलन की भूमि आई। उसके स्वामी ने कहातात ! मा खलि, तात! मा खलि "अरे ! स्खलित मत होना, स्खलित मत होना", पर, गोशालक स्खलित हुआ और तेल भूमि पर वह चला । वह स्वामी के डर से भागने लगा। स्वामी ने उसका वस्त्र पकड़ लिया। वह वस्त्र छोड़कर नंगा ही भाग चला। इस प्रकार वह नग्न साधु हो गया और लोग उसे 'मक्खलि' कहने लगे।
यह कथानक बौद्ध परम्परा में भी बहुत उत्तरकालिक है; अतः उसका महत्त्व एक दन्तकथा या एक किंवदन्ती से अधिक नहीं आंका जा सकता।
__व्याकरणाचार्य पाणिनि ने इसे मस्करी शब्द माना है। मस्करी शब्द का सामान्य अर्थ परिव्राजक किया है। भाष्यकार पतञ्जलि कहते हैं- “मस्करी वह साधु नहीं है, जो हाथ में मस्कर या बांस की लाठी लेकर चलता है। फिर क्या है ? मस्करी वह है, जो उपदेश देता है, कर्म मत करो। शान्ति का मार्ग ही श्रेयस्कर है। यहां गोशालक का नामग्राह उल्लेख भले ही न हो, पर, पाणिनि और पतञ्जलि का अभिप्राय असंदिग्ध रूप में उसी ओर संकेत करता है । लगता है, 'कर्म मत करो' की व्याख्या तब प्रचलित हुई, जब गोशालक समाज में एक धर्माचार्य के रूप में विख्यात हो चुके थे। हो सकता है, उन्होंने प्रचलित नाम की नवीन व्याख्या दी हो। जैन आगमों का अभिप्राय इस विषय में मौलिक लगता है। वे उसे मंखलि का पुत्र बताने के साथ-साथ गोशाला में उत्पन्न भी कहते हैं, जिसकी पुष्टि पाणिनि गोशालायां जातः गोशालः (४।३।३५) इस व्युत्पत्ति-नियम से करते हैं। आचार्य बुद्धघोष ने भी सामञफलसुत्त की टीका में गोशालक का जन्म गोशाला में हुआ माना है।४
पाणिनि का काल ई०पू० ४८० से ई०पू० ४१० का माना गया है। यदि वे अपने मध्य जीवन में भी व्याकरण की रचना करते हैं, तो उसका समय ई०पू० ४४५ के आसपास का होता है । महावीर का निर्वाण ई०पू० ५२७ में होता है और गोशालक का निधन इससे १६ वर्ष पूर्व अर्थात् ई०पू० ५४३ में होता है। तात्पर्य, गोशालक के शरीरान्त और पाणिनि के रचना-काल में लगभग १०० वर्ष का अन्तर आ जाता है। यह बहुत स्वाभाविक
१. आचार्य बुद्ध घोष, धम्मपद अट्ठ कथा; १-१४३; मज्झिम निकाय, अट्ठ कथा;
१-४२२ । २. मस्करं मस्करिणौ वेणुपरिव्राजकयोः।
-पाणिनि व्याकरण, ६-१-१५४ । ३. न वै मस्करोऽस्यातीति मस्करी परिव्राजकः। किं तहि ? माकृत कर्माणि माकृत कर्माणि, शान्तिर्वः श्रेयसीत्याहातो मस्करी परिव्राजकः ।।
--पातञ्जल महाभाष्य ६-१-१५४ । ४. सुमंगल विलासिनी, (दीघ निकाय अट्ठकथा) पृ० १४३-४४ । ५. वासुदेवशरण अग्रवाल, पाणिनिकालीन भारतवर्ष, पृ० ४७६ ।
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