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४४ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन
खण्ड : १ कुशीनगर में हुआ जबकि महावीर का निर्वाण पावा में और वह भी निश्चित रूप से बुद्ध के निर्वाण से पूर्व ।"
डा० जेकोबी ने यहां जरा भी स्पष्ट नहीं किया है कि उनकी यह धारणा किन प्रमाणों पर आधारित है और न उन्होंने यहाँ यह भी समीक्षा की है कि महावीर और बुद्ध के जन्म और निर्वाण कब हुए थे । अतः उक्त विवरण से यह पता लगाना कठिन होता है कि उनकी इस धारणा से महावीर और बुद्ध की समसामयिकता कितनी थी।
महावीर का निर्वाण-काल
उनके द्वारा अनूदित जैन सूत्रों के दोनों खण्डों की भूमिकाओं के अवान्तर प्रसंगों से यह भी भली-भांति प्रमाणित होता है कि उन्होंने भगवान् महावीर का निर्वाण ई० पू० ५२६ में माना था। वे लिखते हैं : “जैनों की यह सर्वसम्मत मान्यता है कि जैन सूत्रों की वाचना वल्लभी में देवद्धि (क्षमा-श्रमण) के तत्त्वावधान में हुई । इस घटना का समय वीरनिर्वाण से ६८० (या ६६३) वर्ष बाद का है, अर्थात् ४५४ (या ४६७) ईस्वी का है ; जैसा कि कल्पसूत्र (गाथा १४८) में ही बताया गया है।"
इस उद्धरण से यह स्पष्ट हो जाता है कि डा. जेकोबी ने वार-नवाण का समय ई० पू० ५२६ का माना है, क्योंकि ५२६ में ४५४ और ४६८ जोड़ने पर ही क्रमशः ९८० और ९६३ वर्ष होते हैं । उनके द्वारा अनूदित दूसरे खण्ड की भूमिका में जो कि पहले खण्ठ की भूमिका से दस वर्ष बाद (ई० १८९४) लिखी गई है, उन्होंने इसी तथ्य को प्रसंगोपात्त फिर दोहराया है । २ उसी भूमिका में एक प्रसंग और मिलता है, जो कि ई० पू० ५२६ की निर्विवाद पुष्टि करता है । वे लिखते हैं : “कौशिक गोत्री छलुय रोहगुत्त ने, जो कि जैन-धर्म का छठा निह्नव था, वीर-निर्वाण के ५४४ वर्ष बाद अर्थात् ई० १८ में त्रैराशिक मत की स्थापना की।" यहां पर भी ५४४ में से ५२६ बाद देने पर ही ई० सन् १८ का समय आता है ।
2. The redaction of the Jaina's canon or the siddhanta took place
according to the unanimons tradition, in the council of Vallabhi, under the presidency of DEVARDDHI. The date of this event 980 (or 993) A.V., corresponding to 454 (or 467) A. D. incorpcrated in the Kalpasutra (148)...
—S, B. E., vol. XXII, introduction, p. XXXVII, २. S. B. E., vol. XLV, introduction, p. XL. ३. Khaluya Rohagutta of the Kausika Gotra, with whom origina.
ted the sixth Schism of the Jainas, the Trairasikamatam in 544. A.V. (18 A.D.)
-S.B.E. vol. XLV, introduction, p. XXXVII.
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