Book Title: Agam 41 2 Pindniryukti Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar

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Page 6
________________ आगम सूत्र ४१/२, मूलसूत्र-२/२, ‘पिंडनियुक्ति ' नकली फल के ढेर करके पेड़ के नीचे रख दिए । मृग ने वो फल देखे और अपने नायक को बात की, सभी वहाँ आए । नायक ने वो फल देखे और सभी मृग को कहा कि, किसी धूर्त ने हमें पकड़ने के लिए यह किया है। क्योंकि अभी इन फलों की मौसम नहीं है । इसलिए वो फल खाने कोई न जाए । इस प्रकार नायक की बात सुनकर कुछ मृग वो फल खाने के लिए न गए । कुछ मृग नायक की बात की परवा किए बिना फल खाने के लिए गए जैसे ही फल खाने लगे वहीं राजा के पुरुषोंने उत मृग को पकड़ लिया । इसलिए उन मृग में से कुछ बाँधे गए और कुछ मर गए। जिन मृग ने वो फल नहीं खाए वो सुखी हो गए, ईच्छा के अनुसार वन में विचरण करने लगे। भाव गवेषणा - किसी महोत्सव पर कुछ साधु आए थे । किसी श्रावक ने या भद्रिकने साधुओं के लिए जन तैयार करवाया और दूसरे लोगों को बुलाकर भोजन देने लगे। उनके मन में था कि, 'यह देख कर साधु आहार लेने आएंगे।' आचार्य को इस बात का किसी भी प्रकार पता चल गया । इसलिए साधुओं को गोचरी लेने के लिए मत जाना । क्योंकि वह आहार आधाकर्मी है। कुछ साधु वहाँ आहार लेने के लिए न गए, लेकिन किसी कुल में से गोचरी ले आए । जब कुछ साधु ने आचार्य के वचन की परवा न की और वह आहार लाकर खाया । जिन साधुओंने आचार्य भगवंत का वचन सुनकर वह आधाकर्मी आहार न लिया, वो साधु तीर्थंकर भगवंत की आज्ञा के आराधक बने और परलोक में महासुख पाया । जब कि जिन साधुओं ने आधाकर्मी आहार खाया वो साधु श्री जिनेश्वर भगवंत की आज्ञा के विराधक बने और संसार का विस्तार किया । इसलिए साधुओं को निर्दोष आर पानी की गवेषणा करनी चाहिए और दोषित आहार पानी आदि का त्याग करना चाहिए। क्योंकि निर्दोष आहार आदि के ग्रहण से संसार का शीघ्र अन्त होता है । ग्रहण एषणा दो प्रकार से । एक द्रव्य, दूसरी भाव । द्रव्य ग्रहण एषणा - एक जंगल में कुछ बंदर रहते थे । एक दिन गर्मी में फल, पान आदि सूखे देखकर बड़े बंदर ने सोचा कि दूसरे जंगल में जाए । दूसरे अच्छे जंगल की जाँच करने के लिए अलग-अलग दिशा में कुछ बंदरों को भेजा । उस जंगल में एक बड़ा द्रह था । यह देखकर बंदर खुश हो गए । बड़े बंदर ने उस द्रह की चारों ओर जाँच-पड़ताल की, तो उस द्रह में जाने के पाँव के निशान दिखते थे, लेकिन बाहर आने के निशान नहीं दिखते थे । इसलिए बड़े बंदर ने सभी बंदरों को इकट्ठा करके कहा कि, इस द्रह में सावधान रहना । किनारे से या द्रह में जाकर पानी मत पीना, लीकन पोली नली के द्वारा पानी पीना । जो बंदरने बड़े बंदर के कहने के अनुसार किया वो सुखी हए । और जो द्रह में जाकर पानी पीने के लिए गए वो मर गए । इस प्रकार आचार्य भगवंत महोत्सव आदि में आधाकर्मी, उद्देशिक आदि दोषवाले आहार आदि का त्याग करवाते हैं और शुद्ध आहार ग्रहण करवाते हैं । जो साधु आचार्य भगवंत के कहने के अनुसार व्यवहार करते हैं, वो थोड़े ही समय में सभी कर्मो का क्षय करते हैं । जो आचार्य भगवंत के वचन के अनुसार व्यवहार नहीं करते वो कईं भव में जन्म, जरा, मरण आदि के दुःख पाते हैं। भाव ग्रहण एषणा के ग्यारह प्रकार - स्थान, दायक, गमन, ग्रहण, आगमन, प्राप्त, परवृत, पतित, गुरुक, त्रिविध भाव । स्थान - तीन प्रकार के आत्म ऊपघातिक, प्रवचन ऊपघातिक, संयम ऊपघातिक । दायक - आठ वर्ष से कम उम्र का बच्चा, वृद्ध, नौकर, नपुंसक, पागल, क्रोधित आदि से भिक्षा ग्रहण मत करना । गमन - भिक्षा देनेवाले, भिक्षा लेने के लिए भीतर जाए, तो उस पर नीचे की जमीं एवं आसपास भी न देखे । यदि वो जाते हुए पृथ्वी, पानी, अग्नि आदि का संघट्टा करता हो तो भिक्षा ग्रहण मत करना । ग्रहण - छोटा, नीचा द्वार हो, जहाँ अच्छी प्रकार देख सकते न हो, अलमारी बंध हो, दरवाजा बंध हो, कईं लोग आते-जाते हो, बैलगाड़ी आदि पड़े हो, वहाँ भिक्षा ग्रहण मत करना । आगमन - भिक्षा लेकर आनेवाले गृहस्थ पृथ्वी आदि की विराधना करते हुए आ रहे हो तो भिक्षा ग्रहण मत करना । प्राप्त - कच्चा पानी, संसक्त या गीला हो तो भिक्षा ग्रहण नहीं करनी चाहिए। परावर्त - आहार आदि दूसरे बरतन में डाले तो उस बरतन को कच्चा पानी आदि लगा हो तो उस बरतन में से आहार ग्रहण नहीं करना चाहिए । पतित आहार पात्र में ग्रहण करने के बाद जाँच करनी चाहिए । योगवाला पिंड़ है या स्वाभाविक, वो देखो । गुरुक - बड़े या भारी भाजन से भिक्षा ग्रहण नहीं करनी चाहिए । त्रिविध - काल तीन मुनि दीपरत्नसागर कृत् "(पिंडनियुक्ति)” आगम सूत्र-हिन्दी अनुवाद” Page 6

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