Book Title: Agam 41 2 Pindniryukti Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar
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आगम सूत्र ४१/२, मूलसूत्र-२/२, पिंडनियुक्ति'
मूलकर्मपिंड़ - मंगल को करनेवाली लोक में जानीमानी औषधि आदि से स्त्री को सौभाग्यादि के लिए स्नान करवाना, धूप आदि करना, एवं गर्भाधान, गर्भस्थंभन, गर्भपात करवाना, रक्षाबंधन करना, विवाह-लग्न आदि करवाना या तुड़वाना आदि, क्षतयोनि करवाना यानि उस प्रकार का औषध कुमारिका आदि को दे कि जिससे योनि में से रूधिर बहता जाए । अक्षतयोनि यानि औषध आदि के प्रयोग से बहता रूधिर बंध हो । यह सब आहारादि के लिए करे तो मूलकर्मपिंड़ कहलाता है।
ब्रह्मदीप में देवशर्मा नाम का कुलपति ४९९ तापस के साथ रहता है। अपनी महिमा बताने के लिए संगति आदि पर्व के दिन देवशर्मा अपने परिवार के साथ पाँव में लेप लगाकर कृष्णा नदी में उतरकर अचलपुर गाँव में आता था । लोगों को ऐसा अतिशय देखकर ताज्जुब हुआ, इसलिए भोजन आदि अच्छी प्रकार से देकर तापस की अच्छा सत्कार करते थे । इसलिए लोग तापस की प्रशंसा करते थे और जैन की नींदा करते थे, एवं श्रावकों को कहने लगे कि, तुम्हारे गुरु में ऐसी शक्ति है क्या ? श्रावक ने आचार्य श्री समितसूरिजी से बात की। आचार्य महाराज समझ गए कि, वो पाँव के तलवे में लेप लगाकर नदी पार करते हैं लेकिन तप के बल पर नहीं उतरता । आचार्य महाराज ने श्रावकों को कहा कि, उनका कपट खुला करने के लिए तुम्हें उसको उसके सभी तापस के साथ तुम्हारे यहाँ खाने के लिए बुलाना और खाने से पहले उसके पाँव इस प्रकार धोना कि लेप का जरा सा भी हिस्सा न रहे । फिर क्या किया जाए वो मैं सँभाल लूँगा।
श्रावक तापस के पास गए । पहले तो उनकी काफी प्रशंसा की, फिर परिवार के साथ भोजन करने का न्यौता दिया । तापस भोजन के लिए आए, इसलिए श्रावक तापस के पाँव धोने लगे । कुलपति – मुखिया तापस ने मना किया । क्योंकि पाँव साफ करने से लेप नीकल जाए । श्रावक ने कहा कि पाँव धोए बिना भोजन करवाए तो अविनय होता है, इसलिए पाँव धोने के बाद ही भोजन करवाया जाता है । फिर श्रावकों ने तापसों के पाँव अच्छी प्रकार धोकर अच्छी प्रकार से खिलाया । फिर उन्हें छोड़ने के लिए सभी श्रावक उनके साथ नदी के किनारे पर गए। कुलपति अपने तापस के साथ नदी में उतरने लगा । लेकिन लेप न होने से पानी में डूबने लगा । यह देखते ही लोगों को उनकी अपभ्राजना हुई कि अहो ! यह तो लोगों को धोखा देने के लिए लेप लगाकर नदी में जाते थे । इस समय तापस आदि के प्रतिबोध के लिए सूरिजी वहाँ आए और लोग सुने उस प्रकार बोले कि, हे कृष्णा ! हमें सामने के तट पर जाना है । वहाँ तो नदी के दोनों तट इकट्ठे हो गए । यह देखकर लोग एवं तापस सहित कुलपति आदि सबको ताज्जुब हुआ । आचार्यश्री का ऐसा प्रभाव देखकर देवशर्मा तापस ने अपने ४९९ तापस के साथ आचार्य भगवंत के पास दीक्षा ली । उनकी ब्रह्म नाम की शाखा बनी।
अज्ञानी लोग शासन की नींदा करते थे उसे टालने के लिए और शासन की प्रभावना करने के लिए सूरिजी ने किया यह उपयोग सही था, लेकिन केवल भिक्षा के लिए लेप आदि करना साधु को न कल्पे । उसमें भी संयम विराधना, आत्म विराधना, प्रवचन विराधना होती है।
साधु ने भिक्षादि निमित्त से चूर्ण, योग, मूलकर्म आदि पिंड़ ग्रहण नहीं करना चाहिए, क्योंकि इस प्रकार करने में कई प्रकार के दोष रहे हैं । प्रयोग करने का पता चले तो साधु के प्रति द्वेष करे, ताड़न-मारण करे । औषध आदि के लिए वनस्पतिकाय, पृथ्वीकाय आदि की विराधना हो । भिन्नयोनि करने से जिन्दगी तक उसे भोग का अंतराय होता है । अक्षतयोनि करने से मैथुन सेवन करे । गर्भ गिराए इसलिए प्रवचन की मलीनता होती है । जीवहिंसा हो । इस प्रकार संयम विराधना, आत्म विराधना और प्रवचन विराधना आदि दोष होते हैं । इसलिए साधु को इस प्रकार की भिक्षा लेना न कल्पे । मूलकर्म करने से आत्मा नरक आदि दुर्गति में जाता है। सूत्र - ५५५-५६१
शास्त्र में तीन प्रकार की एषणा बताई है - गवेषणा, ग्रहण एषणा, ग्रास एषणा । गवेषणादोष रहित आहार की जाँच करना । ग्रहण एषणा - दोष रहित आहार ग्रहण करना । ग्रास एषणा - दोष रहित शुद्ध आहार का विधिवत् उपयोग करना । उद्गम के सोलह और उत्पादन के सोलह दोष, यह बत्तीस दोष बताए उसे गवेषणा
मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(पिंडनियुक्ति)” आगम सूत्र-हिन्दी अनुवाद”
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