Book Title: Agam 41 2 Pindniryukti Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar
View full book text
________________
आगम सूत्र ४१/२, मूलसूत्र-२/२, पिंडनियुक्ति' कहत हैं । गवेषणा का निरूपण पूरा हुआ।
ग्रहण एषणा के दश दोष में आठ दोष साधु और गृहस्थ दोनों से उत्पन्न होते हैं । दो दोष (शक्ति और अपरिणत) साधु से उत्पन्न होते हैं।
ग्रहण एषणा के चार निक्षेप - प्रकार बताएं हैं - नाम ग्रहण एषणा, स्थापना ग्रहण एषणा, द्रव्य ग्रहण एषणा, भाव ग्रहण एषणा । नाम ग्रहण एषणा - ग्रहण एषणा नाम हो वो । स्थापना ग्रहण एषणा - ग्रहण एषणा की स्थापना आकृति की हो वो । द्रव्य ग्रहण एषणा - तीन प्रकार से - सचित्त, अचित्त या मिश्र चीज को ग्रहण करना वो । भाव ग्रहण एषणा - दो प्रकार से - आगम भावग्रहण एषणा और नोआगम भावग्रहण एषणा । आगम भावग्रहण एषणा - ग्रहण एषणा से परिचित और उसमें उपयोगवाला । नोआगम भावग्रहण एषणा - दो प्रकार से - प्रशस्त भाव ग्रहण एषणा और अप्रशस्त भाव ग्रहण एषणा । प्रशस्त भावग्रहण एषणा - सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र आदि । अप्रशस्त भावग्रहण एषणा - शंकित आदि दोषवाले आहार पानी ग्रहण करना । भावग्रहण एषणा में यहाँ अप्रशस्तपिंड़ का अधिकार है। अप्रशस्तपिंड़ के दश प्रकार बताए हैं। सूत्र-५६२
शंकितदोष - आधाकर्मादि दोष की शंकावाला आहार ग्रहण करना । म्रक्षितदोष - सचित्त पृथ्वीकायादि खरड़ित आहार ग्रहण करना । पिहितदोष -सचित्त आदि चीज से ढंका हुआ आहार ग्रहण करना । संहृतदोष - जिस बरतन में सचित्त आदि चीज रखी हो, वो खाली करके उससे जो आहार दे उसे ग्रहण करना वो । दायकदोष - शास्त्र में निषेध करनेवाले हाथ से आहार ग्रहण करना । उन्मिश्रदोष - सचित्त आदि से मिलावट किया गया आहार ग्रहण करना । अपरिणतदोष - सचित्त न हुआ हो वो आहार ग्रहण करना । लिप्तदोष - सचित्त आदि से खरड़ित हाथ, बरतन आदि से दिया आहार लेना । छर्दितदोष -जमीं पर गिराते हुए दिया आहार ग्रहण करना | सूत्र-५६३-५६५
शंकित दोष में चार भाँगा होते हैं । आहार लेते समय दोष की शंका एवं खाते समय भी शंका । आहार लेते समय दोष की शंका लेकिन खाते समय नहीं । आहार लेते समय शंका नहीं लेकिन खाते समय शंका । आहार लेते समय शंका नहीं और खाते समय भी शंका नहीं । चार भाँगा में दूसरा और चौथा भाँगा शुद्ध है।
शंकित दोष में सोलह उद्गम के दोष और मक्षित आदि नौ ग्रहण एषणा के दोष ऐसे पच्चीस दोष में से जिस दोष की शंका हो वो दोष लगता है । जिन-जिन दोष की शंकापूर्वक ग्रहण करे या ले तो उस दोष के पापकर्म से आत्मा बँधता है। इसलिए लेते समय भी शंका न हो ऐसा आहार ग्रहण करना और खाते समय भी शंका न हो ऐसा आहार खाना शुद्ध भाँगा है । छद्मस्थ साधु अपनी बुद्धि के अनुसार उपयोग नहीं रखने के बावजूद भी अशुद्ध-दोषवाला आहार लिया जाए तो उसमें साधु को कोई दोष नहीं लगता । क्योंकि श्रुतज्ञान प्रमाण से वो शुद्ध बनता है सूत्र - ५६६-५७२
आम तोर पर पिंड निर्युक्त आदि शास्त्र में बताई विधि का कल्प्य-अकल्प्य की सोच करने लायक श्रुतज्ञानी छद्मस्थ साधु शुद्ध समझकर शायद अशुद्ध दोषवाला आहार भी ग्रहण करे और वो आहार केवलज्ञानी को दे, तो केवलज्ञानी भी वो आहार दोषवाला जानने के बाद भी लेते हैं । क्योंकि यदि न ले तो श्रुतज्ञान अप्रमाण हो जाए। श्रुतज्ञान अप्रमाण होने से, पूरी क्रिया निष्फल हो जाए छद्मस्थ जीव को श्रुतज्ञान बिना उचित सावध, निरवद्य, पापकारी, पापरहित विधि, निषेध आदि क्रियाकांड का ज्ञान नहीं हो सकता । श्रुतज्ञान अप्रमाण होने से चारित्र की कमी होती है । चारित्र की कमी होने से मोक्ष की कमी होती है । मोक्ष की कमी होने से दीक्षा की सारी प्रवृत्ति निरर्थक - व्यर्थ होती है। क्योंकि दीक्षा का मोक्ष के अलावा दूसरा कोई प्रयोजन नहीं है।
मुनि दीपरत्नसागर कृत् "(पिंडनियुक्ति)” आगम सूत्र-हिन्दी अनुवाद”
Page 43