Book Title: Agam 41 2 Pindniryukti Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar
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पा
आगम सूत्र ४१/२, मूलसूत्र-२/२, पिंडनियुक्ति' अग्निकाय पर पृथ्वीकाय आदि सात प्रकार से निक्षिप्त होते हैं । विध्यात, मुर्मुर, अंगार, अप्राप्त, प्राप्त, समजवाले और व्युत्क्रांत । विध्यात - साफ प्रकार से पहले अग्नि न दिखे, पीछे से ईंधन डालने से जलता हुआ दिखे । मुर्मुरफीके पड़ गए, आधे बुझे हुए अग्नि के कण । अंगार - ज्वाला बिना जलते कोयले । अप्राप्त चूल्हे पर बरतन आदि रखा हो उसे अग्नि की ज्वाला छूती न हो । प्राप्त - अग्नि ज्वालाए बरतन को छूती हो । सम ज्वाला - ज्वालाएं बढ़कर बरतन के ऊपर तक पहुँची हो । व्युत्क्रांत ज्वालाएं इतनी बढ़ गई हो कि बरतन से ऊपर तक चली जाए।
इन सात में अनन्तर और परम्पर ऐसे दोनों प्रकार से हो विध्यातादि अग्नि पर सीधे ही मंडक आदि हो तो अनन्तर निक्षिप्त न कल्पे और बरतन आदि में हो वो परम्पर अग्निकाय निक्षिप्त कहलाता है । उसमें अग्नि का स्पर्श न होता हो तो लेना कल्पे । पहले चार में कल्पे और ५-६-७ में न कल्पे । कईं बार बड़े भट्रे पर चीज रखी तो तो वो कब कल्पे वो बताते हैं । भट्ठा पर जो बरतन आदि रखा हो उसके चारों ओर मिट्टी लगाई हो, वो विशाल बड़ा हो, उसमें इक्षुरस आदि रहा हो वो रस आदि गृहस्थ को देने की ईच्छा हो तो यदि वो रस ज्यादा गर्म न हो और देते हुए बूंदे गिरे तो वो मिट्टी के लेप में सूख जाए यानि भढे में बूंदें गिर न सके । और फिर अग्नि की ज्वाला बरतन को लगी न हो तो वो रस आदि लेना कल्पे । उसके अलावा न कल्पे । इस प्रकार सभी जगह समझ लेना । सचित्त चीज का स्पर्श होता हो तो लेना न कल्पे ।
बरतन चारों ओर लींपित, रस ज्यादा गर्म न हो, देते समय बूंद न गिरे । बूंद गिरे तो लेप में सूख जाए । इन चार पद को आश्रित करके एक दूसरे के साथ रखने से सोलह भाँगा होते हैं । इन सोलह भाँगा में पहले भाँगा का कल्पे, बाकी पंद्रह का न कल्पे ।
ज्यादा गर्म लेने में आत्म विराधना और पर विराधना होती है । काफी गर्म होने से साधु लेते समय जल जाए तो आत्म विराधना, गृहस्थ जल जाए तो पर विराधना । बड़े बरतन से देने से देनेवाले को कष्ट हो उस प्रकार गिर जाए तो छह काय की विराधना । इससे संयम विराधना लगे । इसलिए साधु को इस प्रकार का लेना न कल्पे । पवन की ऊठाई हुई चावल को पापड़ी आदि अनन्तर निक्षिप्त कहलाता है और पवन से भरी बस्ती आदि पर रोटियाँ, रोटी आदि हो तो अनन्तर निक्षिप्त । त्रसकाय में बैल, घोड़े आदि की पीठ पर सीधी चीज रखी हो तो अनन्तर निक्षिप्त और गुणपाट या अन्य बरतन आदि में चीज रखी हो तो परम्पर त्रसकाय निक्षिप्त कहलाता है।
इन सबमें अनन्तर निक्षिप्त न कल्पे, परम्पर निक्षिप्त में सचित्त संघटन आदि न हो उस प्रकार से योग्य यतनापूर्वक ले सके । इस प्रकार ४३२ भेद हो सकते हैं। सूत्र-६००-६०४
साधु को देने के लिए अशन आदि सचित्त, मिश्र या अचित्त हो और वो सचित्त, अचित्त या मिश्र से ढंका हआ हो यानि ऐसे सचित्त, अचित्त और मिश्र से ढंके हए की तीन चतुर्भंगी होती है। हरएक के पहले तीन भाँगा में लेना न कल्पे । अंतिम भाँगा में भजना यानि किसी में कल्पे किसी में न कल्पे ।
पहली चतुर्भंगी सचित्त से सचित्त बँका हुआ । मिश्र से सचित्त बँका हुआ, सचित्त से मिश्र ढंका हुआ । मिश्र से मिश्र ढंका हआ।
दूसरी चतुर्भंगी सचित्त से सचित्त ढंका हुआ । अचित्त से सचित्त बँका हुआ सचित्त से अचित्त बँका हुआ और अचित्त से अचित्त ढंका हुआ।
तीसरी चतुर्भंगी - मिश्र से मिश्र ढंका हुआ । मिश्र से अचित्त ढंका हुआ, अचित्त से मिश्र ढंका हुआ, अचित्त से अचित्त बँका हुआ।
निक्षिप्त की प्रकार सचित्त पृथ्वीकायादि के द्वारा सचित्त पृथ्वीकायादि के ढंके हुए ३६ भाँगा । मिश्र पृथ्वीकायादि से सचित्त मिश्र पृथ्वीकायादि ढंके हुए ३६ भाँगा । मिश्र पृथ्वीकायादि से मिश्र पृथ्वीकायादि ढंके हुए ३६ भाँगा । कुल १४४ भाँगा । तीन चतुर्भंगी के होकर ४३२ भाँगा इँके हए । पुनः इन हरएक में अनन्तर और परम्पर ऐसे दो प्रकार हैं । सचित्त पृथ्वीकाय से सचित्त मंड़क आदि ढंके हुए वो अनन्तर ढंके हुए । सचित्त
मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(पिंडनियुक्ति)” आगम सूत्र-हिन्दी अनुवाद”
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