Book Title: Agam 41 2 Pindniryukti Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar
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वायु
आगम सूत्र ४१/२, मूलसूत्र-२/२, पिंडनियुक्ति' नीवाला मुँह में डालने से मुँह विकृत न बने, उतना नीवाला या सरलता से मुँह में रख सके उतने आहार का नीवाला। भाव कुक्कुटी - जितना आहार खाने से (कम नहीं - ज्यादा भी नहीं) शरीर में जोश रहे, ज्ञान, दर्शन, चारित्र की वृद्धि हो उतना आहार, उसका बत्तीसवा हिस्सा एक नीवाला कहलाता है।
बत्तीस नीवाले में एक, दो, तीन नीवाले कम करने से यावत् सोलह नीवाले प्रमाण आहार करे यावत् उसमें से भी कत करनेसे आठ नीवाले जितना आहार करे । वो यात्रामात्र (गुझारे के लिए काफी) आहार कहलाता है।
साधुओं को कैसा आहार खाना चाहिए ? जो हितकारी - द्रव्य से अविरुद्ध, प्रकृति को जचनेवाला और एषणीय -दोषरहित आहार करनेवाला, मिताहारी- प्रमाणसर बत्तीस नीवाले प्रमाण आहार करनेवाला, अल्पाहारी -- भूख से कम आहार करनेवाले होते हैं, उनका वैद्य इलाज नहीं करते । यानि उनको बीमारी नहीं लगती।
हितकारी और अहितकारी आहार का स्वरूप - दही के साथ तेल, दूध के साथ दही या काजी अहितकारी है । यानि शरीर को नुकसान करता है । अहितकारी आहार लेने से सारी बीमारी उत्पन्न होती है । दूध और दहीं
और तेल या दहीं और तेल के साथ खाने से कोढ़ की बीमारी होती है, समान हिस्से में खाने से झहर समान बनता है। इसलिए अहितकारी आहार का त्याग करना और हितकारी आहार लेना चाहिए।
मित्त आहार का स्वरूप - अपने उदर में छ हिस्सों की कल्पना करना । उसमें शर्दी, गर्मी और सामान्य काल की अपेक्षा से आहार लेना, उनकी समझ देने के लिए बताया हैकाल पानी
भोजन काफी शर्दी में एक हिस्सा
चार हिस्से
एक हिस्सा मध्यम शर्दी में दो हिस्सा
तीन हिस्से
एक हिस्सा मध्यम गर्मी में दो हिस्सा
तीन हिस्से
एक हिस्सा ज्यादा गर्मी में तीन हिस्सा
दो हिस्से
एक हिस्सा हमेशा उदर का एक हिस्सा वायुप्रचार के लिए खाली रखना चाहिए । वो खाली न रहे तो शरीर में दर्द करे
जो साधु प्रकाम, निष्काम, प्राणीत, अतिबाहुक और अति बहुश - भक्तपान का आहार करे उसे प्रमाण
मझो । प्रकाम - घी आदि न रेलाते आहार के तैंतीस नीवाले से ज्यादा खाए । निकाम - घी आदि न रेलाते आहार के बत्तीस से ज्यादा नीवाले एक से ज्यादा खाए । प्रणीत - नीवाला लेने से उसमें से घी आदि नीकलता हो ऐसा आहार लेना । अतिबाहुक - अकरांतीया होकर खाना । अतिबहुश काफी लालच से अतृप्तता से दिन में तीन बार से ज्यादा आहार लेना । साधु को भूख से कम आहार खाना चाहिए । यदि ज्यादा आहार खाए तो आत्म विराधना, संयम विराधना, प्रवचन विराधना आदि दोष लगते हैं। सूत्र-६९७-७०२ ___अंगार दोष और धूम्रदोष - जैसे अग्नि लकड़े को पूरी प्रकार जला देती है और अंगार बनाती है और आधा जलने से धुंआवाला करता है, ऐसे साधु आहार खाने से आहार की या आहार बनानेवाले की प्रशंसा करे तो उससे राग समान अग्नि से चारित्र समान लकड़े को अंगार समान बनाती है । और यदि उपयोग करते समय आहार की या आहार बनानेवाले की बराई करे तो द्वेष समान अग्नि से चारित्र समान लकडे धुंआवाले होते हैं।
राग से आहार की प्रशंसा करते हुए खाए तो अंगार दोष लगता है । द्वेष से आहार की नींदा करते हुए खाए तो धूम्रदोष लगता है । इसलिए साधुने आहार खाते समय प्रशंसा या नींदा नहीं करनी चाहिए । आहार जैसा हो वैसा समभाव से राग-द्वेष किए बिना खाना चाहिए, वो भी कारण हो तो ले वरना न ले। सूत्र - ७०३-७१०
आहार करने के छह कारण हैं । इन छह कारण के अलावा आहार ले तो कारणातिरिक्त नामका दोष लगे क्षुधा वेदनीय दूर करने के लिए, वैयावच्च सेवा भक्ति करने के लिए, संयम पालन करने के लिए, शुभ ध्यान करने के लिए, प्राण टिकाए रखने के लिए, इर्यासमिति का पालन करने के लिए । इन छह कारण से साधु आहार खाए,
मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(पिंडनियुक्ति)” आगम सूत्र-हिन्दी अनुवाद”
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