Book Title: Agam 41 2 Pindniryukti Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar

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Page 41
________________ आगम सूत्र ४१/२, मूलसूत्र-२/२, "पिंडनियुक्ति' संस्तव - भिक्षा लेने के बाद दातार की प्रशंसा करना । भिक्षा लेने के बाद बोले कि, आज तुम्हें देखने से मेरे नैन निर्मल हुए । गुणवान को देखने से चक्षु निर्मल बने उसमें क्या ताज्जुब । तुम्हारे गुण सच्चे ही हैं, तुम्हें देखने से पहले तुम्हारे दान आदि गुण सुने थे, तब मन में शक हुआ था कि, यह बात सच होगी या झूठ ? लेकिन आज तुम्हें देखने से वो शक दूर हो गया है । आदि प्रशंसा करे उसे वचन पश्चात् संस्तव कहते हैं। ऐसे संस्तव दोषवाली भिक्षा लेने से दूसरे कई प्रकार के दोष होते हैं। सूत्र-५३२-५३७ जप, होम, बलि या अक्षतादि की पूजा करने से साध्य होनेवाली या जिसके अधिष्ठाता प्रज्ञाप्ति आदि स्त्री देवता हो वो विद्या । एवं जप होम आदि के बिना साध्य होता हो या जिसका अधिष्ठाता पुरुष देवता हो वो मंत्र । भिक्षा पाने के लिए विद्या या मंत्र का उपयोग किया जाए तो वो पिंड विद्यापिंड या मंत्रपिंड कहलाता है। ऐसा पिंड़ साधु को लेना न कल्पे । गंधसमृद्ध नाम के नगर में बौद्ध साधु का भक्त धनदेव रहता था । वो बौद्ध साधु की भक्ति करता था । उसके वहाँ यदि जैन साधु आए हो तो कुछ भी न देता । एक दिन तरूण साधु आपस में इकट्ठे होकर बातें कर रहे थे, वहाँ एक साधु बोले कि, इस धनदेव संयत साधु को कुछ भी नहीं देता । हममें से कोई ऐसा है कि जो धनदेव के पास घी, गुड़ आदि भिक्षा दिला सके ? एक साधु बोल पड़ा कि, मुझे आज्ञा दो, मैं धनराज से दान दिलवाऊं । साधु ने कहा कि अच्छा, तुम्हें आज्ञा दी । वो साधु धनदेव के घर के पास गया और उसके घर पर विद्या का प्रयोग किया। इसलिए धनदेव ने कहा कि, क्या दूँ ? साधु ने कहा कि, घी, गुड़, वस्त्र आदि दो । धनदेव ने काफी घी, गुड़, कपड़े आदि दिए । साधु भिक्षादि लेकर गए फिर उस साधुने विद्या संहर ली । इसलिए धनदेव को पता चला । घी, गुड़ आदि देखकर उसे लगा कि, कोई मेरे घी, गुड़ आदि की चोरी करके चला गया है । और खुद विलाप करने लगा। लोगों ने पूछा कि, क्यों रो रहे हो? क्या हआ ? धनदेव ने कहा कि, मेरा घी आदि किसी ने चोरी कर लिया लोगों ने कहा कि, तुम्हारे हाथ से ही साधु को चाहे उतना दिया है और अब चोरी के लिए क्यों चिल्लाते हो? यह सुनकर धनदेव चूप हो गया । विद्या संहरकर वो स्वभावस्थ हुआ । अब यदि उस साधु का द्वेषी हो तो दूसरी विद्या के द्वारा साधु को स्थंभित कर दे या मार डाले, या फिर लोगों को कहे कि, विद्यादि से दूसरों का द्रोह करके जिन्दा है, इसलिए मायावी है, धूर्त है आदि मन चाहा बोले । इसलिए साधु की नींदा हो, राजकुल में ले जाए तो वध, बंधन आदि कदर्थना हो । इसलिए साधु को विद्या का प्रयोग भिक्षा में लेना न कल्पे। सूत्र - ५३८-५५४ चूर्णपिंड - अदृश्य होना या वशीकरण करना, आँख में लगाने का अंजन या माथे पर तिलक करने आदि की सामग्री चूर्ण कहलाती है । भिक्षा पाने के लिए इस प्रकार के चूर्ण का उपयोग करना, चूर्णपिंड़ कहलाता है। योगपिंड़ - सौभाग्य और दौर्भाग्य को करनेवाले पानी के साथ घिसकर पीया जाए ऐसे चंदन आदि, धूप देनेवाले, द्रव्य विशेष, एवं आकाशगमन, जलस्थंभन आदि करे ऐसे पाँव में लगाने का लेप आदि औषधि योग कहलाती है । भिक्षा पाने के लिए इस प्रकार के योग का उपयोग, योगपिंड़ कहलाता है। चूर्णपिंड़ पर चाणक्य ने पहचाने हुए दो अदृश्य साधु का दृष्टांत – पादलेपन समान योगपिंड़ पर श्री समितसूरि का दृष्टांत, मूलकर्मपिंड़ पर अक्षतयोनि एवं क्षतयोनि करने पर दो स्त्री का दृष्टांत, विवाह विषयक मूल कर्मपिंड़ पर दो स्त्री का दृष्टांत और गर्भाधान एवं गर्भपीड़न रूप मूलकर्म पिंड़ पर राज की दो रानी का दृष्टांत । ऊपर के अनुसार विद्या, मंत्र, चूर्ण, योग के उत्सर्ग, अपवाद को बतानेवाले आगम का अनुसरण करनेवाले साधु यदि गण, संघ या शासन आदि के कार्य के लिए उपयोग करे तो यह विद्यामंत्रादि दुष्ट नहीं है । ऐसे कार्य के लिए उपयोग कर सके । उसमें शासन प्रभावना रही है । केवल भिक्षा पाने के लिए उपयोग करे तो ऐसा पिंड साधु के लिए अकल्प्य है। मुनि दीपरत्नसागर कृत् "(पिंडनियुक्ति)” आगम सूत्र-हिन्दी अनुवाद” Page 41

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