Book Title: Agam 41 2 Pindniryukti Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar
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आगम सूत्र ४१/२, मूलसूत्र-२/२, "पिंडनियुक्ति' राजगृही नगरी में सिंहस्थ नाम का राजा राज्य करता था । उस नगर में विश्वकर्मा नाम का जानामाना नट रहता था। उसको सभी कला में कुशल अति स्वरूपवान मनोहर ऐसी दो कन्या थी । धर्मरुची नाम के आचार्य विहार करते-करते उस नगर में आ पहुँचे । उन्हें कईं शिष्य थे, उसमें आषाढ़ाभूति नाम के शिष्य तीक्ष्ण बुद्धिवाले थे । एक बार आषाढ़ाभूमि भिक्षा के लिए घूमते-घूमते विश्वकर्मा नट के घर गए । विश्वकर्मा की बेटी ने सुन्दर मोदक दिया, उसे लेकर मुनि बाहर नीकले । कईं वसाणे से भरे, खुशबूदार मोदक देखकर, आषाढ़ाभूति मुनिने सोचा कि, यह उत्तम मोदक तो आचार्य महाराज की भक्ति में जाएगा । ऐसा मोदक फिर कहाँ मिलेगा ? - इसलिए रूप बदलकर दूसरा लड्डू ले आऊं । ऐसा सोचकर खुद एक आँख से काने हो गए और फिर 'धर्मलाभ' देकर उस नट के घर में गए । दूसरा लड्डू मिला । सोचा कि, यह मोदक तो उपाध्याय को देना पड़ेगा । इसलिए फिर कुबड़े का रूप धारण करके तीसरा लड्डू पाया । यह तो संघाट्टक साधु को देना पड़ेगा । इसलिए कोढ़ीआ का रूप धारण करके चौथा लड्डू ले आया । अपने घर के झरोखे में बैठे विश्वकर्मा ने साधु को अलग-अलग रूप बदलते देख लिया । इसलिए उसने सोचा कि, यदि यह नट बने तो उत्तम कलाकार बन सकता है । इसलिए किसी भी प्रकार से इसको वश में करना चाहिए । सोचने से उपाय मिल गया । मेरी दोनों लड़कियाँ जवान, खूबसूरत, चालाक और बुद्धिशाली हैं। उनके आकर्षण से साधु को वश कर सकेंगे।
विश्वकर्मा नीचे ऊतरा और तुरन्त साधु को वापस बुलाया और लड्डू भरा पात्र दिया और कहा कि, भगवन्! हमेशा यहाँ पधारकर हमें लाभ देना । आषाढ़ाभूति भिक्षा लेकर उपाश्रय में पहुंचे।
इस ओर विश्वकर्मा ने अपने परिवार को साधु के रूप परिवर्तन की सारी बाते बताईं । फिर दोनों लड़कियों को एकान्त में बुलाकर कहा कि, कल भी यह मुनि भिक्षा के लिए जरुर आएंगे । आने पर तुम सम्मान से अच्छी प्रकार से भिक्षा देना और उनको वश में करना । वो आसक्त हो जाए फिर कहना कि, हमें तुमसे काफी स्नेह है, इसलिए तुम हमें अपनाकर हमसे शादी करो | आषाढ़ाभूति मुनि तो मोदक आदि के आहार में लटु हो गए और रोज विश्वकर्मा नट के घर भिक्षा के लिए जाने लगे । नटकन्या सम्मान के साथ स्नेह से अच्छी भिक्षा देती है ।
कर्षित होने लगे और स्नेह बढ़ने लगा । एक दिन नटकन्या ने माँग की। चारित्रावरण कर्म का जोरों का उदय हुआ । गुरु का उपदेश भूल गए, विवेक नष्ट हुआ, कुलजाति का अभिमान पीगल गया । इसलिए आषाढ़ाभूति ने शादी की बात का स्वीकार किया और कहा कि यह मेरा मुनिवेश मेरे गुरु को सौंपकर वापस आता हूँ।
गुरु महाराज के पाँव में गिरकर आषाढ़ाभूति ने अपना अभिप्राय बताया । गुरु महाराज ने कहा कि, वत्स ! तुम जैसे विवेकी और ज्ञानी को आलोक और परलोक में जुगुप्सनीय आचरण करना योग्य नहीं है । तुम सोचो, लम्बे अरसे तक उत्तम प्रकार के शील का पालन किया है, तो फिर अब विषय में आसक्त मत हो, दो हाथ से पूरा सागर तैरने के बाद खबोचिये में कौन डूबे ? आदि कई प्रकार से आषाढ़ाभूति को समझाने के बाद भी आषाढ़ाभूति को कुछ असर नहीं हुआ । आषाढ़ाभूति ने कहा कि, भगवन् ! आप कहते हो वो सब बराबर है, लेकिन प्रतिकूल कर्म का उदय होने से विषय के विराग समान मेरा कवच कमझोरी के योग से स्त्री की मजाक समान तीर से जर्जरीत हो गया है । ऐसा कहकर आचार्य भगवंत को नमस्कार करके अपना ओघो गुरु महाराज के पास रख दिया । फिर सोचा कि, एकान्त उपकारमंद संसार सागर में डूबते जीव का उद्धार करने की भावनावाले, सभी जीव के बँधु तुल्य ऐसे गुरु को पीठ क्यों दिखाए ? ऐसा सोचकर उल्टे कदम से उपाश्रय के बाहर नीकलकर सोचते हैं । ऐसे गुरु की चरणसेवा फिर से कब प्राप्त होगी ? आषाढ़ाभूति विश्वकर्मा के मंदिर में आ पहुँचे । विश्वकर्मा ने आदर के साथ कहा कि, महाभाग्यवान ! यह मेरी दोनों कन्याओं को अपनाओ । दोनों कन्या की शादी आषाढ़ाभूति के साथ की गई। (वृत्ति में दी गई बाद की कथा विषयवस्तु को समझाने में जरुरी नहीं है लेकिन सार इतना कि मायापिंड़ उस साधु को चारित्र छुड़वानेवाला बना है इसलिए इस प्रकार साधु को उत्सर्ग मार्ग से मायापिंड़ ग्रहण नहीं करना चाहिए । अपवाद मार्ग से, बीमारी, तपस्या, मासक्षमण, प्राघुर्णक, वृद्ध एवं संघ आदि
मुनि दीपरत्नसागर कृत् "(पिंडनियुक्ति)” आगम सूत्र-हिन्दी अनुवाद”
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