Book Title: Agam 41 2 Pindniryukti Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar
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आगम सूत्र ४१/२, मूलसूत्र-२/२, पिंडनियुक्ति'
यह क्षीर धात्रीपन बताया । उस अनुसार बाकी के चार धात्रीपन समझ लेना । बच्चों से खेलना आदि करने से साधु को धात्रीदोष लगता है।।
संगम नाम के आचार्य थे । वृद्धावस्था आने से उनका जंघाबल कमझोर होने से यानि चलने की शक्ति नहीं रहने से, कोल्लकिर नाम के नगर में स्थिरवास किया था । एक बार उस प्रदेश में अकाल पड़ने से श्री संगम सूरिजीने सिंह नाम के अपने शिष्य को आचार्य पदवी दी, गच्छ के साथ अकालवाले प्रदेश में विहार करवाया और खुद अकेले ही उस नगर में ठहरे । आचार्य भगवंत ने नगर में नौ भाग कल्पे, यतनापूर्वक मासकल्प सँभालते थे । इस अनुसार विधिवत् द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावपूर्वक ममता रहित संयम का शुद्धता से पालन करते थे। एक बार श्री सिंहसूरिजीने आचार्य महाराज की खबर लेने के लिए दत्त नाम के शिष्य को भेजा । दत्तमुनि
स उपाश्रय में आचार्य महाराज को रखकर गए थे, उसी उपाश्रय में आचार्य महाराज को देखने से, मन में सोचने लगा कि, यह आचार्य भाव से भी मासकल्प नहीं सँभालते, शिथिल के साथ नहीं रहना चाहिए, ऐसा
चकर आचार्य महाराज के साथ न ठहरा लेकिन बाहर की ओसरी में मुकाम किया । उसके बाद आचार्य महाराज को वंदना आदि करके सुख शाता के समाचार पूछे और कहा कि, आचार्य श्री सिंहसूरिजीने आपकी खबर लेने के लिए मुझे भेजा है। आचार्य महाराजने भी सुख शाता बताई और कहा कि, यहाँ किसी भी प्रकार की तकलीफ नहीं है आराधना अच्छी प्रकार से हो रही है । भिक्षा का समय होते ही आचार्य भगवंत दत्तमुनि को साथ लेकर गोचरी के लिए नीकले । अंतःप्रांत कुल में भिक्षा के लिए जाने से अनुकूल गोचरी प्राप्त नहीं होने से दत्तमुनि निराश हो गए। उनका भाव जानकर आचार्य भगवंत दत्त मुनि को किसी धनवान के घर भिक्षा के लिए ले गए। उस घर में शेठ के बच्चे को व्यंतरी ने झपट लिया था, बच्चा हमेशा रोया करता था । इसलिए आचार्यने उस बच्चे के सामने देखकर ताली बजाते हुए कहा कि, 'हे वत्स ! रो मत ।' आचार्य के प्रभाव से वो व्यंतरी चली गई । इसलिए बच्चा चूप हो गया । यह देखते ही गृहनायक खुश हो गया और भिक्षा में लड्डू आदि वहोराया । दत्तमुनि खुश हो गए, इसलिए आचार्य ने उसे उपाश्रय भेज दिया और खुद अंतप्रांत भिक्षा वहोरकर उपाश्रय में आए।
प्रतिक्रमण के समय आचार्य ने दत्तमुनि को कहा कि, 'धात्रीपिंड और चिकित्सापिंड़ की आलोचना करो।' दत्तमुनि ने कहा कि, 'मैं तो तुम्हारे साथ भिक्षा के लिए आया था । धात्रीपिंड आदि का परिभोग किस प्रकार लगा।' आचार्यने कहा कि, 'छोटे बच्चे से खेला इसलिए क्रीड़न धात्रीपिंड़ दोष और चपटी बजाने से व्यंतरी को भगाया इसलिए चिकित्सापिंड़ दोष, इसलिए उन दोष की आलोचना कर लो । आचार्य का कहा सुनकर दत्तमुनि के मन में द्वेष आया और सोचने लगा कि, 'यह आचार्य कैसे हैं ?' खुद भाव से मासकल्प का भी आचरण नहीं करते और फिर हमेशा ऐसा मनोज्ञ आहार लेते हैं । जब कि मैंने एक भी दिन ऐसा आहार लिया तो उसमें मुझे आलोचना करने के लिए कहते हैं ।' गुस्सा होकर आलोचना किए बिना उपाश्रय के बाहर चला गया।
एक देव आचार्यश्री के गुण से उनके प्रति काफी बहुमानवाला हुआ था । उस देवने दत्त मुनि का इस प्रकार का आचरण और दुष्ट भाव जानकर उनके प्रति कोपायमान हुआ और शिक्षा करने के लिए वसति में गहरा अंधेरा विकुा फिर पवन की आँधी और बारिस शुरू हुई । दत्तमुनि भो भयभीत हो गए। कुछ दिखे नहीं । बारिस में भीगने लगा, पवन से शरीर काँपने लगा । इसलिए चिल्लाने लगा और आचार्य को कहने लगा कि, 'भगवन् ! मैं कहाँ जाऊं ? कुछ भी नहीं दिखता। क्षीरोदधि जल समान निर्मल हृदयवाले आचार्यने कहा कि, 'वत्स ! उपाश्रय के भीतर आ जाओ ।' दत्तमुनि ने कहा कि, 'भगवन् ! कुछ भी नहीं दिखता, कैसे भीतर आऊं ? अंधेरा होने से दरवाजा भी नहीं दिख रहा ।' अनुकंपा से आचार्यने अपनी ऊंगली यूँकवाली करके ऊपर किया, तो उसका दीए की ज्योत जैसा उजाला फैल गया । दुरात्मा दत्तमुनि सोचने लगा कि, अहो ! यह तो परिग्रह में अग्नि, दीप भी पास में रखते हैं? आचार्य के प्रति दत्त ने ऐसा भाव किया, तब देव ने उसकी निर्भत्सना करके कहा कि, दृष्ट अधम ! ऐसे सर्वगण रत्नाकर आचार्य भगवंत के प्रति ऐसा दृष्ट सोचते हो? तम्हारी प्रसन्नता के लिए कितना किया, फिर भी ऐसा दुष्ट चिन्तवन करते हो ? ऐसा कहकर गोचरी आदि की हकीकत बताई और कहा कि, यह जो उजाला है
मुनि दीपरत्नसागर कृत् "(पिंडनियुक्ति)” आगम सूत्र-हिन्दी अनुवाद”
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