Book Title: Agam 41 2 Pindniryukti Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar
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आगम सूत्र ४१/२, मूलसूत्र-२/२, "पिंडनियुक्ति' वो दीप का नहीं है, लेकिन तुम पर अनुकंपा आ जाने से अपनी ऊंगली धुंकवाली करके, उसके प्रभाव से वो उजालेवाली हुई है | श्री दत्तमुनि को अपनी गलती का उपकार हआ, पछतावा हआ, तुरन्त आचार्य के पाँव में गिरकर माफी माँगी। आलोचना की। इस प्रकार साधु को धात्रीपिंड लेना न कल्पे। सूत्र-४६३-४६९
दूतीपन दो प्रकार से होता है । जिस गाँव में ठहरे हो उसी गाँव में और दूसरे गाँव में | गृहस्थ का संदेशा साधु ले जाए या लाए और उसके द्वारा भिक्षा ले तो दूतीपिंड कहलाता है । संदेशा दो प्रकार से समझना - प्रकट प्रकार से बताए और गुप्त प्रकार से बताए । वो भी दो प्रकार से । लौकिक और लोकोत्तर | लौकिक प्रकट दूतीपन - दूसरे गृहस्थ को पता चल सके उस प्रकार से संदेशा कहे । लौकिक गुप्त दूतीपन - दूसरे गृहस्थ आदि को पता न चले उस प्रकार से निशानी से समझाए । लोकोत्तर प्रकट दूतीपन - संघाटक साधु को पता चले उस प्रकार से बताए । लोकोत्तर गुप्त दूतीपन - संघाट्टक साधु को पता न चले उस प्रकार से बताए।
लोकोत्तर गुप्त दूतीपन कैसे होता है ? किसी स्त्री ने अपनी माँ को कहने के लिए संदेशा कहा । अब साधु सोचते हैं कि, 'प्रकट प्रकार से संदेशा कहूँगा तो संघाट्टक साधु को ऐसा लगेगा कि, यह साधु तो दूतीपन करते हैं । इसलिए इस प्रकार कहूँ कि, इस साधु को पता न चले कि 'यह दूतीपन करता है। ऐसा सोचकर वो साधु उस स्त्री की माँ के सामने जाकर कहे कि, तुम्हारी पुत्री जैनशासन की मर्यादा नहीं समझ रही । मुझे कहा कि मेरी माँ को इतना कहना । ऐसा कहकर जो कहा हो वो सब बता दे। यह सुनकर उस स्त्री की माँ समझ जाए और दूसरे संघाटक साधु के मन में दूसरे खयाल न आए इसलिए उस साधु को भी कहे मेरी पुत्री को मैं कह दूंगी कि इस प्रकार साधु को नहीं कहते । ऐसा कहने से संघाट्टक साधु को दूतीपन का पता न चले । सांकेतिक बोली में कहा जाए तो उसमें दूसरों को पता न चले । दूतीपन करने में कईं दोष रहे हैं। सूत्र-४७०-४७३
जो किसी आहारादि के लिए गहस्थ को वर्तमानकाल भूत, भावि के फायदे, नुकसान, सुख, दुःख, आयु, मौत आदि से जुड़े हुए निमित्त ज्ञान से कथन करे, वो साधु पापी है । क्योंकि निमित्त कहना पाप का उपदेश है। इसलिए किसी दिन अपना घात हो, दूसरों का घात हो या ऊभय का घात आदि अनर्थ होना मुमकीन है। इसलिए साधु को निमित्त आदि कहकर भिक्षा नहीं लेनी चाहिए।
एक मुखी अपनी बीवी को घर में छोड़कर राजा की आज्ञा से बाहरगाँव गया था। उसके दौहरान किसी साधु ने निमित्त आदि कहने से मुखी की स्त्री को भक्त बनाया था । इसलिए वो अच्छा-अच्छा आहार बनाकर साधु को देती थी । बाहरगाँव गए हुए काफी दिन होने के बावजूद भी पति वापस नहीं आने से दुःखी होती थी । इसलिए
खी को स्त्री को कहा कि, तुम क्यों दुःखी होती हो? तुम्हारे पति बाहर के गाँव से आ चुके हैं, आज ही तुमको मिलेंगे । स्त्री खुश हो गई। अपने रिश्तेदारों को उनको लेने के लिए भेजा । इस ओर मुखीने सोचा कि, छिपकर अपने घर जाऊं और अपनी बीवी का चारित्र देखू कि, सुशीला है या दुशीला है ? लेकिन रिश्तेदारों को देखकर मुखी को ताज्जुब हुआ । पूछा कि, मेरे आगमन का तुमको कैसे पता चला ? रिश्तेदारों ने कहा कि, तुम्हारी बीवी ने कहा इसलिए हम आए । हम दूसरा कुछ भी नहीं जानते । मुखी घर आया और अपनी बीवी को पूछा कि, मेरे आगमन का तुमको कैसे पता चला ? स्त्रीने कहा कि, यहाँ मुनि आए हैं और उन्होंने निमित्त के बल से मुझे बताया था । मुखी ने पूछा कि, उनके ज्ञान का दूसरा कोई पुरावा है ? स्त्रीने कहा कि, तुमने मेरे साथ जो चेष्टा की थी, जो बातें की थी और मैंने जो सपने देखे थे एवं मेरे गुप्तांग में रहा तिल आदि मुझे बताया, वो सब सच होने से तुम्हारा आगमन भी सच होगा, ऐसा मैंने तय किया था और इसलिए तुम्हें लेने के लिए सबको भेजा था।
यह सुनते ही मुखी को जलन हुआ और गुस्सा हो गया । साधु के पास आकर गुस्से से कहा कि, बोलो ! इस घोड़ी के पेट में बछेरा है या बछेरी ? साधु ने कहा कि उसके पेट में पाँच लक्षणवाला बछेरा है । मुखीने सोचा , यदि यह सच होगा तो मेरी स्त्रीने कहा हुआ सब सच मानूँगा, वरना इस दुराचारी दोनों को मार डालूँगा । मुखीने मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(पिंडनियुक्ति)” आगम सूत्र-हिन्दी अनुवाद”
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