Book Title: Agam 41 2 Pindniryukti Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar
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आगम सूत्र ४१/२, मूलसूत्र-२/२, पिंडनियुक्ति' सके ऐसा न हो और उस चीज की जरुरत हो तो जितना दोषवाला हो उतना नीकाल दे, बाकी का कल्पे । सूत्र-४३३
निर्वाह हो सके ऐसा न हो तो ये चार भेद का उपयोग कर सके । यदि गुझारा हो सके ऐसा हो या दूसरा शुद्ध आहार मिल सके ऐसा हो तो पात्र में आया हुआ सबकुछ परठ देना चाहिए । गुझारा हो सके ऐसा हो तो पात्र में विशोधि कोटि से छूए हुए सभी आहार का त्याग करना, गुझारा न हो सके ऐसा हो तो चार भेद में बताने के अनुसार त्याग करे । कपटरहित जो त्याग करे वो साधु शुद्ध रहते हैं यानि उसे अशुभकर्म का बँध नहीं होता, लेकिन मायापूर्वक त्याग किया हो तो वो साधु कर्मबँध से बँधे जाते हैं । जिस क्रिया में मायावी बँधते हैं उसमें माया रहित शुद्ध रहते हैं। सूत्र - ४३४-४३५
अब दूसरी प्रकार से विशोधिकोटि अविशोधिकोटि समझाते हैं । कोटिकरण दो प्रकार से - उदगमकोटि और विशोधिकोटि । उद्गमकोटि छह प्रकार से, आगे कहने के अनुसार - विशोधिकोटि कईं प्रकार से ९-१८-२७५४-९० और २७० भेद होते हैं । ९-प्रकार - वध करना, करवाना और अनुमोदना करना । पकाना और अनुमोदना करना । बिकता हुआ लेना, दिलाना और अनुमोदना करना । पहले छह भेद अविशोधिकोटि के और अंतिम तीन विशोधिकोटि के समझना । १८-प्रकार - नव कोटि को किसी राग से या किसी द्वेष से सेवन करे । ९X२ = १८, २७ प्रकार (नव कोटि का) सेवन करनेवाला किसी मिथ्यादृष्टि निःशंकपन सेवन करे, किसी सम्यग्दृष्टि विरतिवाला आत्मा अनाभोग से सेवन करे, किसी सम्यग्दृष्टि अविरतिपन के कारण से गृहस्थपन का आलम्बन करते हुए सेवन करे । मिथ्यात्व, अज्ञान और अविरति रूप से सेवन करते हुए ९४३ = २७ प्रकार बने । ५४ प्रकार - २७ प्रकार को कोइ राग से और कोइ द्वेष से सेवन करे, २७X २ = ५४ प्रकार हो । ९० प्रकार - नौ कोटि कोई पुष्ट आलम्बन से अकाल अरण्य आदि विकट देश काल में क्षमादि दश प्रकार के धर्म का पालन करने के लिए सेवन करे । ९X १० = ९० प्रकार हो । २७० प्रकार - इसमें किसी विशिष्ट चारित्र निमित्त से सेवन करे, किसी चारित्र में विशिष्ट ज्ञान निमित्त से सेवन करे, किसी चारित्र में खास दर्शन की स्थिरता निमित्त से दोष सेवन करे ९०४३ = २७० प्रकार हो
ऊपर कहने के अनुसार वो सोलह उद्गम के दोष गृहस्थ से उत्पन्न हुए मानना । यानि गृहस्थ करते हैं । अब कहा जाता है कि उस उद्भव के (१६) दोष साधु से होते समझना । यानि साधु खुद दोष उत्पन्न करते हैं। सूत्र-४३७-४४२
उत्पादना के चार निक्षेप हैं । १. नाम उत्पादना, २. स्थापना उत्पादना, ३. द्रव्य उत्पादना, ४. भाव उत्पादना। नाम उत्पादना - उत्पादना ऐसा किसी का भी नाम होना वो । स्थापना उत्पादना - उत्पादना की स्थापना-आकृति हो वो । द्रव्य उत्पादना - तीन प्रकार से । सचित्त, अचित्त और मिश्र द्रव्य उत्पादना | भाव उत्पादना- दो प्रकार से | आगम भाव उत्पादना और नो आगम भाव उत्पादना।
आगम से भाव उत्पादना - यानि उत्पादना के शब्द के अर्थ को जाननेवाले और उसमें उपयोगवाले । नो आगम से भाव उत्पादना - दो प्रकार से । प्रशस्त और अप्रशस्त - प्रशस्त अप्रशस्त उत्पादना यानि आत्मा को नुकसान करनेवाली - कर्मबँध करनेवाली उत्पादना । वो सोलह प्रकार की यहाँ प्रस्तुत है । वो इस प्रकार - धात्रीदोष - धात्री यानि बच्चे का परिपालन करनेवाली स्त्री । भिक्षा पाने के लिए उनके जैसा धात्रीपन करना । जैसे कि - बच्चे को खेलाना, स्नान कराना आदि । दूती दोष – भिक्षा के लिए परस्पर गृहस्थ के संदेश लाना - ले जाना। निमित्त दोष - वर्तमान, भूत और भावि के आठ प्रकार में से किसी भी निमित्त कहना । आजीविकादोष सामनेवाले के साथ अपने समान कुल, कला, जाति आदि जो कुछ हो वो प्रकट करना । वनीपकदोष - भिखारी
मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(पिंडनियुक्ति)” आगम सूत्र-हिन्दी अनुवाद”
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