Book Title: Agam 41 2 Pindniryukti Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar

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Page 30
________________ आगम सूत्र ४१/२, मूलसूत्र-२/२, पिंडनियुक्ति' अलावा न कल्पे। सामान्य और भोजन अनिसृष्ट में फर्क - सामान्य और भोजन अनिसृष्ट में आम तोर पर पिंड़ का ही अधिकार है, इसलिए कोई भी भोजन हो, जिसके भीतर उन चीज पर हर कोई की मालिकी समान और मुखिया हो तो सामान्य कहलाता है, जब कि भोजन अनिसृष्ट में उस चीज का राजा, परिवार आदि का एक मौलिक और गौण से यानि एक की प्रकार दूसरे भी काफी होते हैं । सामान्य अनिसृष्ट में पहले हरएक स्वामी ने भोजन देने की हा न कही हो लेकिन पीछे से आपस में समझाने से अनुज्ञा दे तो वो आहार साधु को लेना कल्पे । यदि एक को वहोराने के लिए अनुमति देकर सर्व मालिक कहीं और गए हों उस कारण से उनकी मालिक की गैर मोजूदगी में भी वो भिक्षा ग्रहण कर सके। हाथी को खाने के लिए चीज बनाई हो । हाथी का महावत् वो चीज मुनि को दे तो वो लेना न कल्पे । यदि र तो इस प्रकार दोष लगे । हाथी का भोजन राजा का भोजन इसलिए वो राजपिंड कहलाता है। राजा की आज्ञा नहीं होने से मुनि ने लिया हो तो राजा साधु को कैद करे, मारे या कपड़े उतार ले । हाथी के आहार में इतना अंतराय लगे । इसलिए अंतरायजन्य पाप लगे। हाथी के महावत् पर राजा क्रोधित हो । मेरी आज्ञा के सिवा साधु को क्यों दिया ? इसलिए शायद महावत को अनुमति दे कि दंड करे, साधु के कारण से महावत की नौकरी चली जाए । अदत्तादान का दोष साधु को लगे । महावत अपना पिंड़ भी हाथी के सामने दे तो हाथी को ऐसा लगे कि, मेरे भोजन में से यह मुंडिया हररोज ग्रहण करता है । इस कारण से हाथी क्रोधित हो और रास्ते में किसी समय साधु को देखते ही साधु को मार डाले या उपाश्रय तोड़ दे । सूत्र-४१८-४२२ पहले अपने लिए रसोई करने की शुरूआत की हो, फिर साधु आए हैं जानकर रसोई में दूसरा डाला जाए तो अध्यवपूरक दोषवाला कहलाता है । प्रथम खुद के लिए पकाने की शुरूआत की हो फिर पीछे से तीनों प्रकार लिए चावल आदि ओर डाले तो वो आहारादि अध्यवपूरक दोषवाला होता है । अध्यवपूरक के तीन प्रकार हैं - स्वगृह यावदर्थिक मिश्र, स्वगृह साधु मिश्र, स्वगृह पाखंडी मिश्र । स्वगृह यावदर्थिक मिश्र - स्वगृह यानि अपने घर के लिए और यावदर्थिक यानि किसी भिक्षु के लिए । पहले अपने लिए पकाने की शुरूआत की हो और फिर गाँव में कईं याचक, साधु, पाखंडी आदि आने का पता चलते ही, पहले शुरू की गई रसोई में ही पानी, चावल आदि डालकर सबके लिए बनाया गया भोजन । स्वगृह साधु मिश्र - पहले अपने लिए पकाने की शुरूआत की हो फिर साधु के आने का पता चलते , रसोई में चावल, पानी डालकर अपने लिए और साधु के लिए रसोई करे, स्वगृह पाखंडी मिश्र-पहले अपने लिए पकाने की शुरूआत की हो फिर पाखंडी को देने के लिए पीछे से ओर डालके तैयार किया गया भोजन । यावदर्थिक के लिए डाला हुआ भोजन उसमें से दूर किया जाए तो बचा हुआ भोजन साधु को लेना कल्पे, जब कि स्वगृह और साधु मिश्र एवं स्वगृह और पाखंडी मिश्र में डाला हुआ अलग करने के बावजूद बचे हुए भोजन में से साधु को लेना न कल्पे, क्योंकि वो सारा आहार पूतिदोष से दोषित माना जाता है। मिश्रदोष और अध्यवपूरक दोष में क्या फर्क ? मिश्र नाम के दोष में पहले से ही अपने लिए और भिक्षु आदि दोनों का उद्देश रखकर पकाया हो, जब कि इस अध्यवपूरक नाम के दोष में पहले गृहस्थ अपने लिए पकाने की शुरूआत करे और फिर उसमें भिक्षु आदि के लिए ओर डाले । मिश्र और अध्यवपूरक की पहचान - मिश्र और अध्यवपूरक दोष की परीक्षा रसोई के विचित्र परिणाम पर से की जाती है । जैसे कि मिश्र जात में तो पहले से ही साधु के लिए भी कल्पना होती है, इसलिए नाप जितने मसाले, पानी, अन्न आदि चाहिए ऐसा डालकर ज्यादा पकाया हो, इसलिए भोजन के सौष्ठव में क्षति नहीं होती। लेकिन घर के लोग कम हैं और इतना सारा खाना क्यों? वो सोचने से मिश्रजात दोष का ज्ञान हो सकता है। जब कि अध्यवपूरक में पीछे से पानी, मसाले, धान्य, सब्जी आदि मिलाने से चावल अर्धपक्व, दाल आदि के वर्ण, गंध, मुनि दीपरत्नसागर कृत् "(पिंडनियुक्ति)” आगम सूत्र-हिन्दी अनुवाद” Page 30

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