Book Title: Agam 31 Chulika 01 Nandi Sutra Stahanakvasi
Author(s): Devvachak, Madhukarmuni, Kamla Jain, Shreechand Surana
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 19
________________ की स्थिति क्या थी, यह बतलाना भी अभीष्ट है। जिन आगमों में दर्शन-शास्त्र के मूल तत्त्वों का प्रतिपादन किया गया, उनमें से मुख्य आगम हैं-सूत्रकृतांग, भगवती, स्थानांग, समवायांग, प्रज्ञापना, राजप्रश्नीय, नन्दी और अनुयोगद्वार। सूत्रकृतांग में तत्कालीन अन्य दार्शनिक विचारों का निराकरण करके स्वमत की प्ररूपणा की गई है। भूतवादियों का निराकरण करके प्रात्मा का अस्तित्व बतलाया है। ब्रह्मवाद के स्थान में नानाआत्मवाद स्थिर किया है। जीव और शरीर को पृथक् बतलाया है। कर्म और उसके फल की सत्ता स्थिर की है / जगत् उत्पत्ति के विषय में नाना वादों का निराकरण करके विश्व को किसी ईश्वर या अन्य किसी व्यक्ति ने नहीं बनाया, वह तो अनादि-अनन्त है-इस सिद्धान्त की स्थापना की गई है। तत्कालीन क्रियावाद, प्रक्रियावाद, विनयवाद और अज्ञानवाद का निराकरण करके विशुद्ध क्रियावाद की स्थापना की गई है। प्रज्ञापना में जीव के विविध भावों को लेकर विस्तार से विचार किया गया है। राजप्रश्नीय में पार्श्वनाथ की परम्परा के अनुयायी केशीकुमार श्रमण ने राजा प्रदेशी के प्रश्नों के उत्तर में नास्तिकवाद का निराकरण करके आत्मा और तत्सम्बन्धी अनेक तथ्यों को दृष्टान्त एवं युक्तिपूर्वक समझाया है। भगवती सूत्र के अनेक प्रश्नोत्तरों में नय, प्रमाण और निक्षेप आदि अनेक दार्शनिक विचार बिखरे पड़े हैं। नन्दीसूत्र जैन दृष्टि से ज्ञान के स्वरूप और भेदों का विश्लेषण करने वाली एक सुन्दर एवं सरल कृति है। स्थानांग और समवायांग की रचना बौद्धपरम्परा के अंगुतर-निकाय के ढंग की है। इन दोनों में भी आत्मा, पुद्गल, ज्ञान, नय, प्रमाण एवं निक्षेप आदि विषयों की चर्चा की गई है। महावीर के शासन में होने वाले अन्यथावादी निह्नवों का उल्लेख स्थानांग में है। इस प्रकार के सात व्यक्ति बताये गये हैं, जिन्होंने कालक्रम से महावीर के सिद्धान्तों की भिन्न-भिन्न बातों को लेकर मतभेद प्रकट किया था। अनुयोगद्वार में शब्दार्थ करने की प्रक्रिया का वर्णन मुख्य है। किन्तु यथाप्रसंग उसमें प्रमाण, नय एवं निक्षेप पद्धति का अत्यन्त सुन्दर निरूपण हुआ है। प्रागम-प्रामाण्य में मतभेद आगम-प्रामाण्य के विषय में एकमत नहीं है। श्वेताम्बर स्थानकवासी परम्परा 11 अंग, 12 उपांग, 4 मूल, 4 छेद, और आवश्यक, इस प्रकार 32 अागमों को प्रमाणभूत स्वीकार करती है। शेष प्रागमों को नहीं / इनके अतिरिक्त नियुक्ति, भाष्य, चूणि और टीकाओं को भी सर्वाशंत: प्रमाणभूत स्वीकार नहीं करती। दिगम्बर परम्परा उक्त समस्त ग्रागमों को अमान्य घोषित करती है। उसकी मान्यता के अनुसार सभी ग्रागम लुप्त हो चके हैं। दिगम्बर-परम्परा का विश्वास है, कि वीर-निर्वाण के बाद थुत का क्रम से ह्रास होता गया। यहाँ तक ह्रास हा कि बीर-निर्वाण के 683 वर्ष के बाद कोई भी अंगधर अथवा पूर्वधर नहीं रहा / अंग और पूर्व के अंशधर कुछ प्राचार्य अवश्य हुए हैं। अंग और पूर्व के अंश-ज्ञाता प्राचार्यों की परम्परा में होने वाले पुष्पदन्त, और भूतबलि प्राचार्यों ने 'षट् खण्डागम' की रचना-द्वितीय अग्रायणीय पूर्व के अंश के आधार पर की, और प्राचार्य गणधर ने पांचवें पूर्व ज्ञानप्रवाद के अंश के आधार पर 'कृपायपाहड़' की रचना की। भूतवलि प्राचार्य ने 'महाबन्ध की रचना की / उक्त आगमों में निहित विषय मुख्य रूप से जीव और कर्म है। बाद में उक्त ग्रन्थों पर प्राचार्य वीरसेन ने धवला और जयधवला टीका रची। यह टीका भी उक्त परम्परा को मान्य है। दिगम्वर परम्परा का सम्पूर्ण साहित्य प्राचार्यों द्वारा रचित है। प्राचार्य कुन्दकुन्द द्वारा प्रणीत ग्रन्थ-समयसार, प्रवचनसार, पंचास्तिकायसार एवं नियमसार आदि भी दिगम्बर-परम्परा में प्रागमवत मान्य हैं। प्राचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती के ग्रन्थ-'गोम्मटसार', 'लब्धिसार' और 'द्रव्यसंग्रह' आदि भी उतने ही प्रमाणभूत और मान्य हैं। प्राचार्य कुन्द-कून्द के ग्रन्थों पर प्राचार्य अमृतचन्द्र ने अत्यन्त प्रौढ़ एवं गम्भीर टीकाएँ लिखी हैं। इस प्रकार दिगम्बर आगम-साहित्य भले ही बहुत प्राचीन न हो, फिर भी परिमाण में वह विशाल है / उर्वर और सुन्दर है। [18] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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