Book Title: Agam 08 Ang 08 Anantkrut Dashang Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Divyaprabhashreeji, Devendramuni, Ratanmuni, Kanhaiyalal Maharaj
Publisher: Agam Prakashan Samiti
View full book text
________________ भगवान अरिष्टनेमि के शासन में यक्षिणी नाम की साध्वी प्रविनी हई और भगवान महावीर के शासन में आर्या चन्दनबाला प्रवतिनी साध्वी थी। शिक्षाएं : इस सूत्र के अध्ययन से मुमुक्षुजनों को ऐसी अनेक अमूल्य शिक्षाओं का लाभ हो सकता है जिनके द्वारा उनका जीवन प्रादर्श रूप हो जाता है। जैसे 1. धैर्य और रढ़ विश्वास गजसुकुमार की तरह होना चाहिए। 2. सहनशक्ति अर्जुन-माली के समान होनी चाहिए। 3. श्रावक लोगों को सुदर्शन श्रमणोपासक का अनुकरण करना चाहिए जिसका प्रात्मतेज देव भी सहन नहीं कर सका। धर्मविश्वास कृष्ण वासुदेव की भांति होना चाहिए। 5. प्रश्नोत्तर की शैली अतिमुक्त कुमार के समान होनी चाहिए। त्यागवत्ति कृष्ण वासुदेव की पाठ अग्रमहिषियों की भांति होनी चाहिए। तयश्चर्या महाराजा श्रेणिक की दस देवियों की भांति होनी चाहिए जो पाठवें वर्ग में सविस्तार वणित है। इस प्रकार यह शास्त्र अनेक शिक्षाओं से अलंकृत हो रहा है। जो भव्य प्राणी उक्त शिक्षानों को धारण कर लेता है उसका मनुष्य-जीवन सार्थक और जनता में आदर्श रूप बन जाता है। उपकार : यद्यपि इस शास्त्र के समुचित सम्पादन में मैं असमर्थ थी तथापि पूज्य गुरुदेव अनुयोगप्रवर्तक श्री कन्हैयालालजी (कमलमुनिजी) म. सा. की पावन कृपा से, शास्त्र विशारद माणेक कुवरजी म. सा. के शुभाशीष से, पं. शोभाचन्द्रजी भारिल्ल की प्राग्रहपूरित प्रेरणा से, परम पूज्य भागम-प्रभाकर आत्मारामजी म. सा. की थं तसहायता से और भगिनी साध्वी वा. ब्र. मुक्तिप्रभाजी म. सा, बा. ब्र. दर्शनप्रभाजी म. सा. और बा. ब्र. अनुपमाजी के परम सहयोग से श्रमरणसंघ के युवाचार्य विद्वद्रत्न मुनि श्री मधुकरजी म. सा. द्वारा प्रायोजित इस पवित्र अनुष्ठान में किंचित् योगदान करने में समर्थ हो गई। अत: इन सर्व महाविभूतियों और महानुभावों की महती कपा, भावना प्रेरणा से पावन बनी हई मैं मेरे और प्रिय पाठकों के संसार का अंत करनेवाली पावनी दशा की अभ्यर्थना के साथ विराम लेती है और प्रमादवश बद्धिदोप या अज्ञानवश हुई त्रुटियों हेतु श्रतदेवताओं की और सर्वश्रतधरों की क्षमा चाहती हूँ। अर्हद्वत्सला साध्वी दिव्यप्रभा 1980 जैन उपाश्रय जमनादास मेहता मार्ग, तीनवत्ती वालकेश्वर-६ [19] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org