Book Title: Agam 07 Ang 07 Upashakdashang Sutra Author(s): Ghisulal Pitaliya Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh View full book textPage 6
________________ 66 'अन्ययूधिक परिगृहीतानि वा चैत्यानि " इन अक्षरों के बाद टीकाकार ने “ अर्हत्प्रतिमा लक्षणानि "अक्षरों से अत्यधिक परिगृहीत के लक्षण के रूप में ये शब्द लिखे हैं । यदि टीकाकार के समक्ष मूल में अरिहंत श्याई' शब्द होता, तो संस्कृत रूप अन्ययूमिक परिगृहीतानि अहंतु त्यानि " होता । इतना होने पर भी वह पक्ष जिस अभाव की पूर्ति करना चाहता था. वह नहीं हो सकी । यह अभाव तो वैसा ही रहा । आनन्दजी के साधना के मतों और भगवान् के बताये हुए अतिचारों में ऐसा एक भी शब्द नहीं है, जो मूर्ति की वन्दना - पूजा आदि का किञ्चित् भी सकेत देता हो । उनकी ऋद्धि-सम्पत्ति का वर्णन है, भगवान् को वन्दना करने जाने, व्रत ग्रहण करने, प्रतिमा जाराधन आदि का जो वर्णन है, उनमें कहीं भी उनके आदि (जाज धर्मसाधना का प्रमुख अंग माना जाता है) उल्लेख बिलकुल नहीं है । इसमें स्पष्ट होता है कि उस समय जिन प्रतिमा की पूजनादि प्रथा जैन संघ में थी ही नहीं । न किसी वाचक के वर्णन में है और न के चरित्र में धर्म के विधि-विधानों में भी नहीं है. फिर एक-दो शब्द प्रक्षेप करने से क्या जाने ( १० ) किसी साधु होता है ? चरित्र हमारा मार्ग दर्शक है भगवान् के आदर्श उपासकों क. चरित्र हमारे लिए उतम मार्गदर्शक है। उनकी धीरता गंभीरना, धर्मा अटूट आस्था और देवान के घर उसकी गालि आत्मसमभ्यं हमारे सब के लिए अनुकरणीय है । मन करने का कुण्ड श्रीजी की वादिना, कामदेवजी की दृढ़ता, अडिगना और कोलिजी को संद्धांतिकपटना, मकालपुत्री की कुप्रवचनीक पूर्व गुरु के प्रति अबहेलना झूठी मन साहत का अभाव आदि गुण अनुमोदनीय ही नहीं, अनुकरणीय है । प्रवन् शक्तिशाली भयानक दैत्य एवं पियाच जैसे देव से भयभीत न होकर तीनों परीक्षा में उत्तीर्ण होने का श्रेय नो एकमात्र कामदेवजी को ही मिला है। उनके समक्ष देव भी पराजित हुआ । देव की सीमातीत क्रूरता भी हार गई। किंतु अन्य श्रमणोपासक दिने । श्री कुलपिताजी ने पुत्रों की हत्या का घोरतम आधान सहन कर लिया, परन्तु माता की हत्या का प्रसंग आने पर वहां गए. इसी प्रकार मुरादेवजी अपने नन में भयानक रोगों की उत्पत्ति होना जान कर चलती धन- विना में मकड़ालपुवजी धर्ममहायिका, धर्मरक्षिका सुख-दुख की साधिन पत्नी की हत्या के भय में विचलित हुए। परन्तु निर्धारित हो कर भी उन्होंने उस देव की माँग के अनुसार धर्म छोड़ने का तो विचार ही नहीं किया, न प्रार्थना की नगिड़गिड़ायेउन माहन के साथ उस पर आक्रमणPage Navigation
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