Book Title: Adhyatma ke Pariparshwa me
Author(s): Nizamuddin
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 82
________________ ६८ अध्यात्म के परिपार्श्व में योजना दूसरी योजना पर निर्भर है। एक-दूसरे पर निर्भर रहकर साथ-साथ सहयोग करके, एक दूसरे का हित-सम्पादन करके हम अपने आप को, अपने समाज को, अपने राष्ट्र को समृद्ध, उन्नत और महान बना सकते हैं । हमें अपने मन से बर्बरता, हिंसा, द्वेष, वैरभाव, घणा को निकालकर अपना तथा अपने देश का “आर्वीकरण" करना चाहिए । “यह भारत ही है जो सम्पूर्ण विश्व के लिए भविष्य धर्म का अवदान देगा, सनातन धर्म सभी धर्मों को एकाकार करके, उनमें समस्वरता पैदा करके, दर्शन और विज्ञान को समन्वित करके विश्व में एकात्म की प्रतिष्ठा होगी। नैतिकता के क्षेत्र में उसी का दायित्व है कि वह मानवता से म्लेच्छता और बर्वरता को निकालकर विश्व को आर्य बनायेगा। ऐसा करने के लिए सबसे पहले उसे अपना आर्गीकरण करना होगा।" साम्प्रदायिक दृष्टि असहिष्णु होती है। जहां सहिष्णुता होती है वहां औदार्य दृष्टि होती है और जो उदारचेता होता है उसमें अपने पराये की संकीर्णता नहीं होती। उसका हृदय विशाल होता है, विचार महान होते हैं । आज हमारे देश में जो राजनीति है, जो सम्प्रदाय हैं, जो जातियां हैं उनमें सहनशीलता का अभाव है। सहनशीलता में सह-अस्तित्व की भावना विद्यमान रहती है। जब हम सर्वधर्म समन्वय या सर्वधर्मसद्भाव की बात कहते हैं तो उस समय हम सहिष्णुता की, सह-अस्तित्व की ही भावना को अभिव्यक्त करते हैं। साम्प्रदायिक या जातीय भेदभाव होना स्वाभाविक है, बुरा नहीं बशर्ते कि उनमें दूसरों के प्रति विरोध न हो, समभाव की दिशा हो । समभाव विरोध या प्रत्याख्यान करता है और सद्भाव का विकास करता है। सद्भाव के गवाक्ष खोलने की आज अत्यधिक आवश्यकता है । आचार्यश्री तुलसी ने हमारे सामने धर्म-समन्वय की पंचसूत्री रूपरेखा प्रस्तुत की जो बड़ी सार्थक और उपयोगी है १. मंडनात्मक नीति बरतना और अपनी मान्यता का प्रतिपादन करते समय दूसरों पर मौखिक या लिखित आक्षेप न लगाएं । २. दूसरों के विचारों के प्रति सहिष्णुता बनाए रखें। ३. किसी सम्प्रदाय के प्रति घृणा व तिरस्कार की भावना का प्रचार न करें। ४. सम्प्रदाय या धर्म परिवर्तन के लिए दबाव न डालें। ५. धर्म के मौलिक तथ्य-अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह को जीवन व्यापी बनाएं। १. कृण्वन्तो विश्वमार्यम् २. उत्तर योगी-डॉ. शिवप्रसाद सिंह, पृ० १२१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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