Book Title: Adhyatma ke Pariparshwa me
Author(s): Nizamuddin
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 205
________________ अणुव्रत आन्दोलन और विश्व-शान्ति १९१ फैलाता है या आतंकवादियों को शरण देता है, प्रशिक्षण देता है। एक देश भारी अस्त्र-शस्त्र जमा करता है, अणुबम बनाता है तो दूसरा उससे पीछे नहीं रहना चाहता। यह सब मानव-संहार के लक्षण नहीं तो और क्या है ? शस्त्रीकरण के पीछे जो भाव है वह अपनी सुरक्षा से अधिक दूसरे को हनन करने का रहता है । अब क्या कोई ऐसा उपाय है, ऐसा साधन है, ऐसी आचारसंहिता है जिसके बल पर संसार को युद्ध-भय-आतंक से मुक्त किया जाये और सभी देशों में सद्भाव पैदा हो, मैत्री भाव जन्म ले, मानवीय एकता के रास्ते पर चले ? इसके लिए अगुव्रत का रास्ता अपनाना श्रेयस्कर है उसमें न मताग्रह है, न कोई धर्माग्रह है और न साम्प्रदायिकता है, न देशजाति की सीमित परिधि में उसे बांधा जा सकता है। अरबी-अजमी, गोराकाला, हिन्दु-मुसलमान, इस्राइलो-फिलिस्तीनी, रूसी-अमरीकी, चीनीजापानी, पाकिस्तानी, हिन्दुस्तानी, इंगलिस्तानी-दक्षिण अफ्रीकी कोई व्यक्ति भी-कोई देश भी इनको अपने लिए निर्देशक तत्त्व के रूप में स्वीकार कर सकता है। हम अणुव्रत आन्दोलन को विश्व के बुद्धिजीवियों के सामने रख सकते हैं, विश्व-नेताओं तथा विश्व के धर्म-गुरुओं के सामने रख सकते हैं । इनमें जीवनमूल्यों को अपनाने का विनम्र निवेदन है, मानवीय मूल्यों को जीवन में उतारने की विनती है । - जब हम अस्वस्थ होते हैं तो सारा शरीर व्याकुल-पीड़ित हो जाता है उस समय उसकी पीड़ा से उसके आत्मीय जन भी संपीड़ित हो उठते हैं, व्याकुल हो जाते हैं और उसके उपचार का साधन जुटाते हैं। पूरा परिवार अति चिंतित और परेशान हो उठता है तो भला जब हमारा समाज अस्वस्थ हो, देश अस्वस्थ हो, विश्व अस्वस्थ हो तो सभी को उसे स्वस्थ रखने का दायित्व निभाना है । महामारी का प्रकोप हो या भयानक बाढ़ हो या भूचाल से तबाही हो अथवा अकस्मात् विमान दुर्घटना में अनेक लोगों की जीवनलीला समाप्त हो गई हो तो मानवता कांप उठती है। क्यों ? इसलिए कि उसमें अभी कहीं करुणा छिपी है; वरना मनुष्य नर-संहार करने में अपना सानी नहीं, वैर-क्रोध के प्रदर्शन में वह पशुओं से भी आगे निकल जाता है। अगुव्रत आन्दोलन मनुष्य में मनुष्यता का संचार करता है, उसे मानवीय गुणों का उपहार देता है, उसमें अहिंसा, संयम, सहिष्णुता के बीज प्रांकुरित करता है । युवाचार्य महाप्रज्ञ ने ठीक कहा है कि अहिंसा की साधना समाज के संदर्भ में होनी चाहिए, वैयक्तिक या नैश्चयिक अहिंसा आत्मोत्थान में सहायक होगी जबकि व्यावहारिक या सामाजिक अहिंसा समाज के, जाति के, राष्ट्र के, विश्व के उत्थान में सहायक होगी । अहिंसा को समाज से, देश से, मानव जाति से जोड़ने की अपेक्षा है। इसकी संप्राप्ति का मार्ग विचारों में, भावों में, आचरण में, व्यवहार में परिवर्तन करना होगा। दुखों की वर्षा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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