Book Title: Adhyatma ke Pariparshwa me
Author(s): Nizamuddin
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 206
________________ १९२ अध्यात्म के परिपार्श्व में से सुख की फसल नहीं लहलहा सकती । असहायों की सहायता ही सुख का मूलमंत्र है।" इस धर्मसंदेश में किसी वर्ग या सम्प्रदाय का संदेश नहीं, मानव-जाति के लिए यह एक संदेश है । यह वही संदेश है जो आचार्य तुलसी पैदल चलकर जन-जन को देते हैं। उनके सामने मनुष्य होता है, न हिन्दु होता है न मुसलमान, न जैन होता है न अजैन और न ब्राह्मण होता है, न शूद्र होता है। आज अणुबमों से पलक झपकते ही विश्व को तबाह किया जा सकता है। हिरोशिमा, नागासाकी की नरसंहारक नृशंस्य घटनाएं फिर घट सकती है। लड़ाई बड़ी आसानी से शुरू की जा सकती है, लेकिन लड़ाई रोकना बहुत कठिन होता है । हम जब शत्रु को मारकर विजयमद में झूमते हैं तो उस समय वह पाशविकता का प्रदर्शन होता है। हम अपने काम, क्रोध, ईर्ष्या-द्वेष, हिंसा, लोभ, मद, अहंकार को नहीं मारते उन्हें मारें तो महान विजयी हो सकते हैं। महावीर मनुष्य को लड़ने से, हिंसा से रोकना चाहते हैं-"ऐ मनुष्य ! यदि तुम्हें लड़ने में रस मिलता है, तो मैं कहता हूं, तुम अवश्य लड़ो, तब अपनी अन्तरात्मा से, काम, क्रोध, मोह, लोभ-रूपी आत्म-शत्रुओं को परास्त कर दो। इसी में तुम्हारा हित है। बाहरी लड़ाइयों से तुम्हारा जीवन कभी सुखी नहीं हो सकता।" आज हम बाहरी लड़ाइयां ही तो हर मोर्चे पर लड़ रहे हैं, इसीलिए दुखी हैं, भयाकुल हैं, आतंकित हैं । हिंसा आतंक कहां से उपजते हैं ? जब मनुष्य के हृदय से करुणा के, मैत्री के, समत्व के, संयम के स्रोत सूख जाते हैं। महावीर ने तो संयम को ही अहिंसा माना है-"नियुणं दिट्ठा सव्वभूएसु संजमो।" जब हम अहिंसा की, सहअस्तित्व की बात करते हैं तो संयम का ही अनुपालन करते हैं। जब हम सह-अस्तित्व की भावना स्वीकारते हैं तो इसका अर्थ यह है कि हम दूसरे के स्वत्व को स्वीकारते हैं। सह-अस्तित्व वहां लुप्त हो जाता है जहां एक देश या राष्ट्र, एक जाति या समाज दूसरे देश के, दूसरी जाति के अस्तित्व को उसके स्वत्व को निर्मूल करना चाहता है। अणुव्रत तो महावीर की वाणी को आचरण में उतारकर उसे विश्व-स्तर पर प्रस्थापित करना चाहता है। यहीं से सह-अस्तित्व के साथ मानवीय एकता के झरने फूटेंगे, शान्ति के सुमन खिलेंगे, मित्रता के पक्षी कलरव करेंगे । हम जितना अधिक उदार, सहनशील बनेंगे उतना ही हमारा समाज सुख-शान्तिमय जीवन बितायेगा । आचार्य विनोबाभावे की वाणी सद्भाव की, उदारता की वाणी थी। उन्होंने कहा था-"सब धर्मों के विषय में उदार भावना रखो, जो सच्चा मातृभक्त है वह सभी माताओं को पूज्य मानेमा । वह अपनी माता की सेवा करेगा लेकिन दूसरे की माता का अपमान नहीं करेगा। हर एक अपनी मां के दूध पर पलता है । धर्म माता के समान है। मुझे मेरी धर्ममाता प्रिय है। मैं मातृ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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