Book Title: Adhyatma ke Pariparshwa me
Author(s): Nizamuddin
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 173
________________ अध्यात्मवादी संत की सामाजिक चेतना १५९ ___"धीर वे हैं जो प्रलोभन के रहते हुए भी लोलुप नहीं बनते, इसलिए आवश्यकता इस बात की है कि जनमानस में विवेक जागृत किया जाए, ऐसा वातावरण उत्पन्न किया जाए कि चलते-चलते हम गिर न जाएं। हमारे ऋषि-मुनियों ने कहा था कि सम्पूर्ण परिग्रह के लिए निर्ग्रन्थ रहना चाहिए, किन्तु निर्ग्रन्थ होकर एकान्त में रहना चाहिए । समाज में रहने वाले साधुओं को समाज की लज्जा का निर्वाह करने के लिए वस्त्र धारण करना चाहिए। दर्द का अनुमान करने से काम नहीं चलेगा, दर्द को मिटाना होगा । यह तो ठीक है कि इस कार्य में अधिक सहायता नहीं मिल सकेगी किन्तु सरकार इतना तो कर ही सकती है कि अश्लीलता को प्रोत्साहन न दे।" __ आज हमारे समाज में अश्लीलता की दुर्गन्ध चारों ओर फैली है । हमारा युवा, किशोर समुदाय तरह-तरह की रंगीन पत्रिकाओं, फिल्मों में कामुक और अश्लील चित्र देखते हैं । क्या पत्रिकाओं के मुख पृष्ठ पर नारी के कामुक चित्र देना उचित है ? इससे हम कौनसा कर्तव्य पूरा कर रहे हैं समाज के प्रति ? टी. वी. पर "वाशिंग पाउडर" का एक विज्ञापन बहुत कामुक है जिसमें नृत्य करती सुन्दरी को एक पुरुष बार-बार भुजाओं में कसता है । इस ओर समाज का ध्यान जाना चाहिए, नेताओं का ध्यान जाना चाहिए । वातावरण बाहर से साफ-निर्मल रखना जरूरी है। __हमारे समाज में द्वेष, ईर्ष्या, घृणा, हिंसा क्या नहीं ! ये भी अश्लीलता की कोटि में आते हैं। हम अपनों की सेवा करते हैं, अपनी जाति के लोगों की सहायता करते हैं । आचार्य तुलसी का कहना है कि सेवा और मंत्री में आत्मौपम्य दृष्टि का समावेश होना चाहिए। लेकिन वे उस सेवा को अच्छा नहीं समझते जो सेवा के नाम पर दूसरों को अकर्मण्य या पौरुषहीन बनाए-"जो लोग सेवा के नाम पर समाज के लोगों को अकर्मण्य, पुरुषार्थहीन और आलसी बनाते हैं, उनमें हीनता और निराशा का संक्रमण करते हैं।" भाचार्यवर का कहना है कि अहिंसा का मूल सिद्धांत हृदय-परिर्तन है । आज का वातावरण हिंसात्मक है । चारों ओर भय और असुरक्षा का अनुभव करता है मनुष्य । फिर इस भय, असुरक्षा, हिंसा से कैसे छुटकारा पाया जाए। आचार्य तुलसी ने अहिंसा के तीन बिन्दु माने हैं-(१) अभय (२) सद्भावना (३) सहिष्णुता। इसी प्रकार अहिंसा के तीन आधार निश्चित किये हैं--(१) सह अस्तित्व (२) समन्वय (३) स्वतन्त्रता । वस्तुतः हमारे अन्दर कमी है सद्भाव या सहिष्णुता की। यदि हम मंत्री भाव से सब के भावों-विचारों को समझे और फिर समन्वयात्मक बुद्धि से, संतुलित मन से उन पर विचार करें तो कोई कारण नहीं कि हिंसा पर विजय प्राप्त न कर सकें। स्वतंत्रता सबको प्रिय है, लेकिन उसकी भी मर्यादा होनी चाहिए; एक सीमा तक ही स्वतंत्रता ग्राह्य है, मान्य है । तट Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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