Book Title: Aagam Manjusha 40 Mulsuttam Mool 01 Aavassay Nijjuttisah
Author(s): Anandsagarsuri, Sagaranandsuri
Publisher: Deepratnasagar
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णीसवमाणो जीवो पडिवजइ सो चउण्हमण्णयरं। पुवपटिवण्णओ पुण सिय आसवओ व णीसवओ॥८॥ उम्मुकमणुम्मुके उम्मचंते य केसऽलंकारे। पडिवजेजऽनयर सयणाईसुपि एमेव ॥९॥ सव्वगयं सम्मन्नं सुए चरिते ण पज्जवा सके। देसविरई पड़चा दोण्हवि पडिसेहर्ण कुजा ॥८३०॥ माणुस्स खेत जाई कुल रूवारोग्गमाउयं बुद्धी। सवणोग्गह सदा संजमो य लोगंमि दुलहाई ॥१॥ चोङग पासग धण्णे जूए रयणे य सुमिण चक्के या चम्म जुगे परमाणू दस दिट्ठन्ता मणुयलंभे ॥२॥ पुवंते होज जुर्ग अवरंते तस्स होज समिला उ। जुग. छिड्डेमि पवेसो इय संसइओ मणुयलंभो ॥३॥ जह समिला पन्भट्ठा सागरसलिले अणोरपारंमि। पविसेज जुग्गछिड्ड कहवि भमंती भमंतमि ॥४॥ सा चंडवायवीचीपणुलिया अवि लभेज युगछिड्ड। ण य माणुसाउ भट्ठो जीवो पडिमाणुसं लहइ ॥५॥ इय दुल्लहलंभ माणुसत्तणं पाविऊण जो जीवो । ण कुणइ पारत्तहियं सो सोयइ संकमणकाले ॥ ६॥ जह वारिमझाडूढो गयवरो मच्छउब्ब गलगहिओ। वग्गुरपडिउब्व मओ संवट्टइओ जह व पक्खी ॥७॥ सो सोयइ मच्चुजरासमोच्छुओ तुरियणिहपक्खित्तो।तायारमविदंतो कम्मभरपणो. लिओ जीवो ॥८॥ काऊणमणेगाई जम्ममरणपरियट्टणसयाई। दुक्खेण माणुसत्तं जइ लहइ जहिच्छियं जीवो ॥९॥ तह दुल्लहलंभं विजुलयाचंचलं च माणुसत्तं। लट्टण जो पमायह सो कापुरिसो न सप्पुरिसो ॥ ८४०॥ आलस्स मोहऽवण्णा थंभा कोहा पमाय किवणता। भय सोगा अण्णाणा वक्वेव कुतूहला रमणा ॥१॥ एतेहिं कारणेहिं लघृण सुदुलहंपि माणुस्स। ण लहइ सुई हियकरि संसारुत्तारणिं जीवो ॥२॥ जाणाऽऽवरणपहरणे जुड़े कुसलत्तणं च णीती य। दक्खत्तं ववसाओ सरीरमारोग्गया चेव ॥३॥ दिढे सुएऽणुभूए कम्माण खए कए उवसमे य। मणवयणकायजोगे य पसत्थे लब्भए वोही ॥४॥ अणुकंपऽकामणिज्जरवालतवे दाणविणयविभंगे । संयोगविप्पओगे वसणूसवइढिसक्कारे ॥५॥ वेज्जे मेंठे तह इंदणाग कयउण्ण पुष्फसालसुए। सिव दुमहुवणिभाउयाहीरदसण्णिलापुत्ते ॥६॥ सो वाणरजूहवती कंतारे सुविहियाणुकंपाए। भासुखरबोंदिधरो देवो बेमाणिओ जाओ॥७॥ अग्भुट्ठाणे विणए परकमे साहुसेवणाए य। सम्मईसणलंभो विरयाविरईइ विरईए॥८॥ सम्मत्तस्स सुयस्सय छावट्टी सागरोवमाई ठिई। सेसाण पुत्रकोडी देसृणा होइ उकोसा ॥९॥ सम्मत्तदेसविरया पलियस्स असंखभागमेत्ता उ। सेढीअसंखभागो सुए सहस्सम्गसो विरई ॥ ८५०॥ सम्मत्तदेसविरया पडिवन्ना संपई असंखेजा। संखेना य चरिते तीसुवि पडिया अणंतगुणा ॥१॥ सुयपडिवण्णा संपइ पयरस्स असंखभागमेत्ता उ। सेसा संसारत्था सुयपरिवडिया हु ते सवे ॥२॥ कालमणंतं च सुए अदापरियट्टओ उ देसूणो। आसायणबहुलाणं उकोस अंतरं होइ ॥३॥ सम्मसुयअगारीणं आवलियअसंखभागमेत्ता उ। अट्ठ समया चरिते सब्बेसु जहन्न दो समया ॥४॥ सुयसम्म सत्तयं खलु विरयाविरईय होइ वारसगं। विरईए पन्नरसगं विरहियकालो अहोरत्ता ॥५॥ सम्मत्तदेसविरया पलियस्स असंखभागमेत्ताओ। अट्ठ भवा उ चरित्ते अणंतकालं च सुयसमए ॥ ६॥ तिण्ह सहस्सपुहुत्तं सयपुहुतं च होह बिरईए। एगभवे आगरिसा एवतिया होति नायव्वा ॥७॥ तिण्ड सहस्समसंखा सहसप। | हिया सब लोग फुसे णिरवसेस । सत्त य चोहसभागे पंच य सुयदेसविरईए॥९॥ सम्बन्जीवहिं सूर्य सम्मचरित्ताई सबसिदेटिं। भागेहिं असंखेजेहिं फासिया देसविरईओ॥
सम्मादिट्टि अमोहो सोही सम्भाव देसणं चोही। अविवजओ सुदिहित्ति एवमाई निरुत्ताई ॥१॥ अक्खर सन्नी संमं सादीयं खल सपजवसियं च। गमियं अंगपबिई सत्तवि एए सपडिवक्खा ॥२॥ विरयाविरई संवुडमसंखुडे बालपंडिए चेव। देसेकदेसविरई अणुधम्मोऽगारधम्मो य ॥३॥ सामाइयं समइयं सम्मावाओ समास संखेवो। अणवजं च परिण्णा पच्च
क्खाणे य ते अट्ठ॥४॥ दमदंते मेयजे कालयपुच्छा चिलाय अत्तेया धम्मरुइ इला तेयलि सामइए अठ्ठदाहरणा ॥५॥ निक्खंतो हस्थिसीसा दमदंतो कामभोगमवहाय। णवि रजइ श्रीरत्तेसुंदुद्वेसुण दोसमावजे ॥१५१॥ भा०ा वंदिजमाणान समुक्कसंति, हीलिजमाणान समुजलंति। दंतेण चित्तेण चरंति धीरा, मुणी समुग्धाइयरागदोसा ॥६॥ तो समणो जइ सुमणो
भावेण य जइ ण होइ पावमणो। सयणे य जणे य समो समोय माणावमाणेसुं॥७॥णस्थि य सि कोइ वेसो पिओ व सवेसु चेव जीवेसु । एएण होइ समणो एसो अण्णोवि पजाओ ॥८॥जो काँचगावराहे पाणिदया कोंचगं तु णाइक्खे। जीवियमणपेहतं मेयजरिसिंणमंसामि ॥९॥णिप्फेडियाणि दोण्णिवि सीसावेढेण जस्स अच्छीणि। ण य संजमाउ चलिओ
मेयजो मंदरगिरिव ॥८७०॥ दत्तेण पुच्छिओ जो जण्णफलं कालओ तुरुमिणीए। समयाएँ आहिएणं संमं बुइयं भदंतेणं ॥१॥ जो तिहि पएहि सम्मं समभिगओ संजमं समारूदो। fe उवसमविवेयसंवर चिलायपुत्तं णमंसामि ॥२॥ अहिसरिया पाएहिं सोणियगंधेण जस्स कीडीओ। खायंति उत्तमंगं तं दुकरकारयं बंदे ॥३॥ धीरो चिलायपुत्तो मूयइंगलियाहि चा
लिणिव कओ। सो तहवि खजमाणो पडिवण्णो उत्तमं अटुं ॥४॥ अड्ढाइजेहिं राइदिएहिं पत्तं चिलाइपुत्तेणं । देविंदामरभवणं अच्छरगणसंकुलं रम्मं ॥५॥ सयसाहस्सा गंथा सहस्स पंच य दिवड्डमेगं च। ठविया एगसिलोए संखेचो एस णायवो ॥६॥ सोऊण अणाउदि अणभीओ वजिऊण अणगं तु। अणवजय उवगओ धम्मरुई णाम अणगारो॥७॥ परिजा११९५ आवश्यकं सनियु-मूक्तिक मूलसूत्र, rajkura
मुनि दीपरत्नसागर
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